Friday, May 23, 2008

इडली

रघु को अब अपनी इस साइकल पे गुस्सा आने लगा था. कल ही नये बेयरिंग डलवाए थे पैडल में और पैडल अब फिर जाम हो रहा था. धूप भी अचानक से तेज़ हो गई थी, जैसे उसे भी बाकी मुंबई की तरह फास्ट लोकल पकडनी हो! पर तेज़ धूप में इडली ज़्यादा देर गर्म रहेगी, ये सोच के रघु को अच्छा लगा. वैसे आज सुबह से धंधा कुछ ठंडा ही था - नीलकमल वाली आंटी भी नहीं आयी आज तो. और जितने ग्राहक लोग आए, सब साले 'एक्सट्रा चटनी' या 'साँभर थोडा और दो ना' वाले थे. रघु का भाई, विजय, होता तो साफ मना कर देता - 'एक्सट्रा नक्को. पैसा लगेगा'. पर रघु को ये आम इंसानी फितरत सिखाने से पहले ही वो मर गया - इडली बेचते बेचते ही.

अब रघु 'सेठ' की खोली पे सुबह पाँच बजे पहुँच जाता है - तीन लडके और आते हैं, और चारों मिल के एक घंटे में करीबन 400 इडलियाँ बनाते हैं. मसाला, चूल्हा, साइकल (भोंपू वाली) सब सेठ देता है और हर इडली पे 50 पैसा भी. 6 बजे तक, 100-100 इडलियाँ लेकर चारों अपने अपने एरिया में निकलते हैं और करीबन 11 बजे तक बेचते हैं. यही काम शाम को 4 बजे फिर शुरु होता है, और इस बार साथ में मेदु वडा भी होता है, जिसपे 75 पैसा मिलता है.

रघु ने साइकल सडक किनारे रोकी और खडे-खडे ही भोंपू बजाने लगा. उसे भूख भी लग रही थी पर उसका खुद का बनाया कायदा था कि जब तक 50 इडली नहीं बिकती, वो नाश्ता नहीं करेगा. अभी 30 ही बिकी थी. मन बहलाने के लिए वो साइकल के पैडल को देखने लगा - उसे शक हुआ कि साइकल वाले ने उसे उल्लू तो नहीं बनाया. जबकि नए बेयरिंग उसकी आँखों के सामने डाले गए थे पर ये ऐसा शक था जो हर कमज़ोर आदमी को होता है - जो उसे सोचने पर मजबूर करता है कि वो कमज़ोर या ग़रीब क्यूँ है? और ऐसा शक हमेशा इसी एहसास पे खतम होता है कि हम इस दुनिया के सबसे आसान शिकार हैं, और ये जान लेना भी हमें कहीं फायदा नहीं देता.

बेयरिंग की जाँच में ज़मीन पर घुटने टिका के बैठा ही था कि एक अंकल ने आवाज़ दी - 'इडली मिलेगा?' रघु जल्दी से खडा हुआ और हाथ साफ करते हुए पूछा - 'कितना?' अंकल ने उसके गंदे हाथों को देखा और कहा - 'ऐसा करो, रहने दो.' रघु कुछ नहीं बोला. विजय होता तो बोलता, पर रघु ऐसे मौकों पे बुत बन जाता था. अंकल आगे चले गए और आधी साँस में एक गाली दी, शायद इसलिए कि रघु ने उन्हें रोका तक नहीं. रघु वापस पैडल देखने झुकने लगा लेकिन फिर सोचा अब आगे चलना चाहिए.

थोडा आगे बढा तो देखा कि पुलिस बंदोबस्त है. कोई धार्मिक झाँकी निकल रही थी, और पुलिस ने सडक पे रस्सियों से ही झाँकी के लिए एक अलग लेन बना दी थी. रघु को अचानक से अपने गाँव की अयप्पा पूजा याद आ गई - उसमें भी ऐसी ही झाँकी निकलती थी. ये बात और है कि रघु और उसकी बस्ती वाले इसे दूर से ही देखते थे. अयप्पा देवता, वैसे तो बहुत शक्तिशाली थे, पर उसकी बस्ती की छाया नहीं सह सकते थे. और शायद उन्हे पता भी नहीं था कि रघु के घर में भी उनकी एक मूर्ति है. पर मुंबई में अच्छा था - किसी भी भगवान या स्वामी जी की यात्रा हो, सडक किनारे से सब देख सकते थे.

झाँकी नज़दीक आयी तो रघु ने देखा कि एक बूढे गुरुजी को एक पालकी में ले जा रहे थे और उनके पीछे-पीछे औरतें और बच्चे नाचते गाते चल रहे थे. ढोल, बैंड बाजा, और बिना किसी लय-ताल के चिमटा बजाते हुए, करीबन 100 लोग शहरी ट्रैफिक जाम का एक छोटा नमूना पेश कर रहे थे. लेकिन तभी कुछ अजीब हुआ - रघु ने ऐसा सुना था, पर पहले कभी देखा नहीं था. पालकी उठाने वाले चारों आदमी अचानक से दर्द से चिल्ला उठे, वो चिल्लाहट भी अजीब सी थी, जैसे कोई उनका गला दबा रहा हो और वो साँस लेने की कोशिश कर रहे हों. और इसके साथ ही पालकी अचानक से झुक गयी, सडक के दाहिने तरफ पूरी टेढी हो गई और गुरुजी ज़ोर ज़ोर से हुँकारें मारने लगे. पूरी भीड में अफरा-तफरी मच गयी और रघु के दिल में तुरंत वहाँ से निकलने की बात आयी. "लफडा नहीं करने का कोई!", सेठ हर रोज़ सुबह बोलता था.

पर ना आगे जाने का रास्ता था, ना वापस मुडने का. और तभी पूरा मामला भी समझ आ गया. पालकी ज़मीन पे कपडा बिछा के रख दी गई और सारे सेवक गुरुजी के इर्द-गिर्द बैठ गए. उन्हें मानो कोई दौरा आया था, या वो कुछ कहना चाहते थे. रघु को याद आया कि कैसे उसने सुना था कि अयप्पा भगवान की पालकी में कई बार खुद देवता आ जाते थे और पुजारियों से बात करते थे. यहाँ कौन आया था, ये तो उसे नहीं पता चला पर जल्दी ही खबर फैल गयी कि गुरुजी भूखे हैं. जनता ने, जो इस मौके के लिए तैयार ही थी, गुरुजी के सामने दूध, मिठाई, फल जैसी चीज़ों के डब्बे खोल दिए. पर गुरुजी, आँख बंद कर के, हर चीज़ को मुँह तक ले जाते और बिना खाए ही हवा में फेंक देते. उनका फेंका हुआ उठाने के लिए जनता में ऐसे लडाई होती जैसे संक्रांत पे बच्चे पतंगों के लिए लडते हैं.

रघु के मन में आया कि कोई सेवक उसकी इडली भी ले जाए और गुरुजी उसका परीक्षण करें पर तभी पुलिस के एक डंडे ने उसके स्टील के बर्तन को झनझना दिया. 3-4 मराठी गालियाँ खा के वो तेज़ी से आगे बढा और उसे फिर से अपनी भूख याद आयी. पर इस बार ज़्यादा नहीं रुकना पडा. अगले चौराहे पे एक मोटे अमीर बच्चे ने 15 इडलियाँ ले लीं और पास ही एक दुकानदार ने 12 और खपा दीं. रघु ने एक पेड के नीचे साइकल खडी की और अपना नाश्ता सजाया. कुछ सेवक अभी भी तरह तरह के फल लेकर झाँकी वाली दिशा में तेज़ी से जा रहे थे और रघु सोचने लगा कि विजय होता तो जा के गुरुजी को खुद ही इडली सुँघाता.

आगे के दो घंटे साधारण ही रहे, करीबन तीस इडलियाँ और बिकीं, लेकिन उनमें से पाँच, ग्राहक को थैली देते देते गिर गयीं, इसलिए दोबारा देनी पडीं. बची हुईं इडलियों का सेठ दस पैसा देता है, और बचा हुआ खट्टा हो चुका साँभर मुफ्त ले जा सकते हो, दोपहर के खाने के लिए. साइकल रख के और हिसाब कर के रघु अपनी खोली पे आ गया. तीन घंटे सोने की कोशिश की लेकिन नींद नहीं आयी - बार बार गुरुजी और उनके सेवक याद आते रहे. वो बंद आँखें, वो गोरा चेहरा, वो पगलाई सी सुंदर औरतें, उनका गिडगिडाना, महँगी मिठाईयाँ खिलाने की कोशिश करना. रघु सोचने लगा कि गुरुजी ने अब तक कुछ खाया होगा या नहीं. उनको क्या चाहिए था - उनको किस चीज़ की भूख थी? क्या वो सिर्फ एक नाटक था, या पालकी सच में उनकी भूख की ताकत से झुक गयी थी? क्या सच में किसी में इतनी ताकत होती है? और लोग कैसे पागल हुए जा रहे थे - वो भी सिर्फ इसलिए कि एक बुड्ढे ने केला फेंक दिया. लेकिन नहीं, रघु को लगा, उसे ऐसा नहीं सोचना चाहिए. विजय कहता था कि वो बहुत सीधा है, उसे दुनिया के बारे में कुछ नहीं पता. इसपे रघु को एक बार फिर अपनी साइकल का पैडल याद आ गया. और थोडी देर की नींद भी.

जब उठा तो चार बज चुके थे - शायद आधा घंटा ही सोया था. जल्दी जल्दी मुँह धोया और सेठ की खोली में पहुँच गया. उसके मन में एक बात थी, जो शायद सोते-सोते और पक्की हो गई थी. सेठ ने उसे देर से आने के लिए गाली दी पर रघु कुछ नहीं बोला, हमेशा की तरह. जल्दी जल्दी इडली मशीन में इडली चढाई, और मेदु वडा का मसाला घोलने लगा. अगले दो घंटे में रघु बहुत बार खुद से मुस्कुराया, वडा बनाने से पहले बार बार हाथ धोए और अपना स्टील का बर्तन भी अलग से, अच्छे से चमकाया. 100 इडली और 70 मेदु वडा लेकर वो तेज़ी से अपनी साइकल पे निकला. रास्ते में उसने न कहीं भोंपू बजाया, न कहीं रुका. बस बरसाती पानी की तरह, इस नयी ढलान पे बहता चला गया.

गोकुल धाम वाले सर्कल से आगे पहुँचा तो उसे दूर से ही भीड दिख गयी. टी.वी. वाले भी अपना कैमरा लगाए बैठे थे और पुलिस बंदोबस्त सुबह से भी ज़्यादा तगडा था. बात साफ थी, और जो रघु को पक्का यकीन भी था, गुरु जी ने अब तक कुछ नहीं खाया था. कतार करीबन एक किलोमीटर लंबी थी और लोग हाथों में तरह तरह के डिब्बे लिए खडे थे. कुछ महिलाएँ तो सडक किनारे ही चुल्हा जला के न्यूज़ चैनल वालों से बात कर रहीं थीं. पर रघु कतार के लिए नहीं रुका. उसकी साइकल, भोंपू बजाते हुए, ठीक उस तरफ बढ चली थी जहाँ अब एक तंबू, एक पंखा और गुजराती भजन बजाता हुआ एक टेप गुरुजी को तीन दिशाओं से ताड रहे थे. रघु ने नज़दीक ही अपनी साइकल खडी की और एक सूखे पत्ते पर दो इडली और दो वडे निकाले, ऊपर थोडी सी नारियल चटनी और एक अलग पत्ते की कटोरी में सांभर परोसा. अभी वो इत्मीनान से ये कर ही रहा था कि एक पाँडू का डंडा आ के उसकी साइकल पे बजा. रघु ने डंडे और पाँडू पे कोई ध्यान नहीं दिया और इडली-वडा लेकर खिंचा सा गुरुजी की तरफ चल पडा.

'ए...ए...ए...चम्माइला कुठे-अस्ते?', हवलदार ने उसके आगे अपना डंडा अडाया पर रघु, बरसों से प्यासे की तरह सिर्फ गुरुजी को देख रहा था. श्रद्धालुओं का कहना है कि जब तक उन्होंने देखा, रघु बहुत पास आ चुका था. तब तक उसके हाथ से साँभर वाली कटोरी गिर चुकी थी और बस इडली-वडा वाला पत्तल बचा था. उसके पास कहने को कुछ नहीं था, बस आँखों में आँसू थे और पीछे से पड रहे दना-दन डँडों का उसपे कोई असर नहीं था. गुजराती भजन वाला टेप रिकार्डर पार करने के बाद सेवक भी उसपे टूट पडे और उसे धक्के देकर बाहर करने की कोशिश की, पर काफी लोगों को महसूस हुआ कि इस दुबले से लडके में काफ़ी ताकत है, या वो सुबह से धूप में बैठने की वजह से उनका वहम भी हो सकता है. सिक्योरिटी वाली रस्सी से बाहर घसीट के रघु को काफी पीटा गया, उसकी साइकल और इडली का बर्तन भी गुस्से की चपेट में आए. पर रघु पिटते हुए भी कुछ नहीं बोला, उसका ध्यान सिर्फ इस तरफ था कि गुरुजी इतने शोर-शराबे के बाद भी अपनी आँखें नहीं खोल रहे. और ये बात उसे अच्छी लगी.

अगले दिन सेठ ने उसका इलाज कराया, तीन हड्डियाँ टूटी थीं, पाँच टाँके लगे थे. बदले में उसे दो हफ्ता बिना पगार के काम करना पडा. सिर्फ खाना मिलता था - बासी साँभर और इडलियाँ. साथी इडली वालों ने बहुत बार पूछा कि उस दिन क्या हुआ था पर रघु को खुद क्या पता था जो बोले? उसे बस इतना अंदाज़ा था कि विजय ठीक बोलता था - "दबने का नहीं". उसे अंदाज़ा था कि उस दिन वो काफी नज़दीक पहुँच गया था और दबा नहीं था.

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(मुँबई और उदय प्रकाश जी की 'तिरिछ' को बराबर भागों में समर्पित)

Monday, May 12, 2008

कमला बाबू

वो भी शायद लेखक बनने ही आए थे, या हो सकता है हीरो बनने, पर अब इस शहर से और अपने अंदर वाले struggler से समझौता कर लिया था. कमलेश कुमार शुक्ला, जिन्हें किसी भी जगह, जहाँ वो कुछ दिन रुकते और चंद इज़्ज़तदार दोस्त बनाते तो कमल बाबू का नाम दे दिया जाता, को फिल्म राइटर्ज़ एसोसिएशन के office में कमला बाबू कहा जाता था. वो फिल्म और टीवी इंडस्ट्री के normally paranoid writers की नई scripts को register कराने के इस कारखाने में एक मशीन थे. उनका काम था हडबडी में आए writer के हाथ से script लेना, उसका membership card माँगना, उस card से नंबर दर्ज़ कर के script के ऊपर लिखना और script अगले मेज़ पे pass कर देना. अगले मेज़ पे यशवंत नाम की machine हर पेज पर तारीख वाली stamp लगाती थी और गिनती कर के, हर पेज के २ रुपए के हिसाब से बिल बनाती थी. बिल की अदायगी के लिए एक बार फिर कमला बाबू की तरफ direct कर दिया जाता. पैसे जमा करने के बाद, कारखाने की आखिरी मशीन, एसोसिएशन के अध्यक्ष, हर पन्ने पर हस्ताक्षर करते और कभी-कभी writer से time-pass गप्प भी लगा लेते.

पर बात हो रही है कमला बाबू की. उन्हें गप्प लगाने का कोई शौक नहीं था, और male writers से तो बिल्कुल नहीं. हाँ कोई ladies आती अपनी script या शायरी को trade union act के तहत protect कराने तो कमला बाबू अचानक से active हो जाते. उनके अंदर का actor या writer, जो भी था, वो जाग जाता. 'Boy' को दौडाकर चाय मँगवायी जाती और अगर कोई खास होती, जो अक्सर शायरा ही होती थीं, तो मद्रासी के यहाँ से वडा-पाव मँगाया जाता. शायरा के पास भी time की कमी नहीं दिखती और वो office को घर की तरह treat करती - बाथरूम में जा कर हाथ मुँह धोना, कुर्सी पे अपना बैग टाँग देना, और अपनी latest शायरी सुनाना. ऐसे ही वक़्त पे एक-दो बार मैं पहुँचा था जिस वजह से उनके बारे में कुछ कुछ मालूम है.

जैसे कि, वो बलिया के थे और ३० साल पहले बंबई आए थे. उस ज़माने में अंधेरी इलाका, जहाँ आज 1 BHK flat ४० लाख का मिलता है, गाँव था और फिल्म सिटी जाने के लिए जंगल से गुज़रना पडता था. उनका एक रिश्तेदार या कोई भैया यहाँ पहले से struggle कर रहे थे. 'नसीब' नाम की फिल्म के एक गाने, 'चल मेरे भाई' में अमिताभ और रिशी कपूर को डंडा फटकारने वाले हवलदार का रोल उन्होंने ही किया था. कमला बाबू ने उनके साथ बडे film studios के चक्कर लगाए थे. कमालिस्तान, फिल्मिस्तान, आर. के., नटराज, जैमिनी; सब जगह कम से कम एक बार entry मिली थी पर काम मिलना मुश्किल था. उस ज़माने में आज जैसा नहीं था, कि talent की कद्र हो, वो भी खास कर के U.P. वालों की. "बच्चन के साथ उनका पैतृक नाम था, राजीव गाँधी उनके दोस्त थे, वरना कौन देता उन्हें भी काम", कमला बाबू का मानना था.

इन सबके बीच मैं ये कभी नहीं जान पाया कि उन दिनों कमला बाबू खुद क्या करते थे. बस एक बार एक नयी शायरा, जो वडा पाव में extra लहसुन चटनी चाहती थी, की बदौलत मुझे ये पता चल गया कि उनके वो 'भैया' एक दिन ज़हरीली शराब पी कर मर गए. 'उस दिन से हमने सोच लिया,' कमला बाबू ने कुर्सी पे सीधे होते हुए कहा, 'कि शहर से टकराएँगे नहीं. हमारे बाप राज कपूर नहीं थे और ना ही हमरी अम्मा emergency लगाईं थी, जितनी जमीन पे खडे थे, उतनी भी अपनी नहीं थी. भैया के किरयाकरम के लिए भी एक चायवाले से उधार लिया और सोच लिए कि उधार चुका के वापस बलिया की गाडी पकड लेंगे.'

बलिया की गाडी क्यूँ नहीं पकडी, या पकडी तो वापस कैसे आ गए, ये वाला किस्सा जिस दिन उन्होंने सुनाया होगा, मैं वहाँ नहीं था. पर जितनी इस शहर या किसी भी बडे शहर की समझ है, वापस जाना मुश्किल होता है. मुझे तो लगता है रेल्वे स्टेशन पर चादर बिछाकर सोने वाले ज़्यादातर लोग कई दिनों तक वहीं पडे-पडे सोचते रहते हैं कि जाएँ या ना जाएँ. तो मेरा ख्याल है कमला बाबू कभी गए ही नहीं.

एक और बार की बात है जब मैंने उनका एक और रूप देखा. एक बडा writer आया था, अपनी script लेकर. इस writer की हाल ही में ३-४ फिल्में hit हुईं थी और उसके आते ही पूरा माहौल थोडा सा रोमांचक हो गया. अंदर वाले कमरे से भी लोग बाहर आ गए और अध्यक्ष साहब ने कुर्सी से उठकर इस celebrity writer का स्वागत किया. पर कमला बाबू न उठे, न उसकी तरफ देखा, बस जो काम कर रहे थे, वो करते रहे. कतार थोडी लंबी थी तो अध्यक्ष महोदय ने खुद ही उनके हाथ से script लेते हुए कमला बाबू की तरफ बढा दी. 'अरे कमला बाबू, इनका पहले कर दीजिए ना...इन्हें जल्दी होगी.' कमला बाबू ने बढे हुए हाथ और उसमें फडफडाती script को एक सरसरी, सरकारी निगाह से देखा और बुदबुदाए - 'तो बाकी लोग क्या जुगाली वाली भैंस हैं. काम जल्दी से नहीं कायदे से होता है.' अध्यक्ष साब एक पल के लिए चौंक गए, उनको समझ नहीं आया कि अपना हाथ खींच लें या अपनी position की बदौलत बहस करें. वो इस मार्फ़त contemplate कर ही रहे थे कि बडे writer ने मामला संभाल लिया और कहा - 'मैं wait कर सकता हूँ. Number आने दीजिए. No problem!' अगली कुछ scripts, जिनमें एक मेरी भी थी, के registration में आम दिनों से ज़्यादा वक़्त लगा और कमला बाबू लगातार कुछ बडबडाते रहे. 'गुलज़ार साब भी आते हैं कभी-कभी, पर आज तक कभी नहीं कहा कि हमारा पहले कर दो. और एक बार कहा था तो हमने मना कर दिया. बाहर आप जो भी हों, यहाँ तो यहीं का कानून चलेगा ना! ये दीवार पे जित्ते frame लगे हैं, साहिर से लेकर मजरूह तक, सबने चप्पल घिस-घिस के कलम में छाले भरे हैं...और सब, सब के सब, इसी table से, हर page का दो रुपया देके गुज़रे हैं. जल्दी शैतान का काम होता है.' और ना जाने क्या-क्या बडबडाते रहे मेरे जाने के बाद भी.

मैं कभी ठीक से समझ नहीं पाया इस बात को. उनका गुस्सा किसपे था? अध्यक्ष पे, अपने रोज़-रोज़ के बोरिंग काम पे, या आजकल के laptop लेकर घूमने वाले writers पे, जो बहुत सारा पैसा कमा रहे थे. भरे office के सामने अधेड उम्र की शायराओं की साडी की तारीफ़ करने वाले कमला बाबू अभी भी शायद अंदर ही अंदर, बंबई सेन्ट्रल स्टेशन पर खडे थे, वापसी की ट्रेन लेने की सोचते हुए और अपनी बेबसी को एसोसिएशन की क्लर्की ताकत के पीछे छुपाते हुए.

आखिरी बार जब मैं उनसे मिला उस दिन कोई शायरा नहीं थी, पर उनका mood काफी अच्छा था. कतार में और कोई नहीं था और मेज़ पर वडा-पाव का तेल लगा था. पाव का आखिरी टुकडा चबाते हुए उन्होंने सुरेश को बुलाया और मेज़ गीले कपडे से साफ करने को बोला. यशवंत अभी खा ही रहा था तो उसके हिस्से का काम भी उन्होंने खुद कर दिया. मुझ से पूछा कि मैं कहाँ का हूँ और जब मैंने कहा 'लखनऊ' तो बडे खुश हो गए. 'कोई film मिली?' मैंने कहा - 'नहीं'. 'टीवी?' मैंने हाँ में सर हिलाया. 'अच्छा है. आजकल टीवी में ही पैसा है. Film line में जान भी जलती है और हरामी पैसा भी मार जाते हैं. गोमती नगर में मकान है हमारे साले का. तुम कहाँ रहते हो लखनऊ में?' मैंने मुस्कुरा के कहा 'मैं भी, गोमती नगर!' उसके बाद उन्होंने लखनऊ के एक और writer का नाम याद करने की कोशिश की पर उस समय याद नहीं आया. 'वो help करेगा तुम्हारी...फिल्म लिख रहा है.' मैंने धन्यवाद बोला और अगली बार पूछने का वादा किया.

अगली बार गया तो उनकी तस्वीर सामने वाली दीवार पे मिली, ठीक उनकी कुर्सी के ऊपर, ताज़ी फूलमाला सहित. उनकी कुर्सी पे यशवंत बैठा था, यशवंत की कुर्सी पे 'boy'. सोचा कि पूछूँ, क्या हुआ, कैसे हुआ, लेकिन वहाँ सब इतना सहज चल रहा था कि हिम्मत नहीं हुई माहौल का mood तोडने की. और फिर लगा कि पूछ कर भी क्या होगा. वहाँ से बाहर आया और सीढी उतरते वक़्त यही सोचता रहा - कमला बाबू इस शहर की नज़रों में, success थे या failure? आज उस मशहूर office में साहिर और मजरूह के सामने वाली दीवार पे उनकी तस्वीर लगी है, और शायद एसोसिएशन की तरफ से कोई condolence भी हुआ होगा. तो क्या वो शहर से टकराए? या वापस न जा कर उन्होंने ठीक किया? या ये सब सोचना ही बेकार है? शायद.

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(कुछ बातें सच हैं, कुछ किस्सा. कुछ किरदार सच हैं, कुछ कहानी.)