Friday, November 28, 2008

अंताक्षरी

दीवार पे खून के छींटे हैं. ऐसे जैसे सैफ अली खान ने 'रोयाल प्ले' का ऐड किया हो. खून हर तरफ है - लोग मरे हैं. मरना क्या होता है? डैफिनीशन ज़रूरी है. जो ज़मीन पर बिखरे पडे हैं, वो मर गए हैं और जो दीवारों पर लिपटा हुआ है - वो उनका खून है. टीवी ४८ घंटों से बंद नहीं हुआ. टीवी १० सालों से बंद नहीं हुआ. हम देख रहे हैं - बिना आँखें झपकाए कि कुछ होगा. मुद्दा सुलझेगा. या और उलझेगा फिर सुलझेगा. सुलझना क्या होता है? पता नहीं. पर इंतज़ार में सुकून है. इंतज़ार में 'मतलब' है. जीने का. मरना क्या होता है? शाम अच्छी लगती है. कबूतर अच्छे लगते हैं. शाम के आसमान में उडते कबूतरों को देख के लगता है उनमें भी एक मतलब है. ट्र्क तेज़ी से आ के रुकता है - पीछे का ढक्कन तुरंत खुलता है और मिलिट्री वाले उतरते हैं - कबूतर उडते हैं. कैमरा शेक करता है - हम साँस रोके देखते हैं. हौलीवुड की फिल्में याद आती हैं. हैलिकॉप्टर, बुलेट-प्रूफ जैकेट, शेक करते कैमरे, ४५० कमरे, खतरे के अंदर होकर भी बाहर हम. हम में 'स्पिरिट' है. हम फिर से उठ खडे होंगे. जो ज़िंदा हैं, वो. कंडिशन्ज़ एप्लाई.

फोन बजता रहता है. हम चलते रहते हैं. आवाज़ें भी साथ साथ चलती हैं - सिग्नल नहीं टूटता. प्रियंका चोपडा फोन लेकर बिस्तर पे नाच रही है. पीछे से आवाज़ें आ रही हैं. सिग्नल नहीं टूटता. हम ह्स्पताल में हैं. यहाँ दीवारों पे खून नहीं है - पर ज़मीन गंदी है. टिंचर की बदबू में भी प्रधान मंत्री ने नाक नहीं ढका. एक से हाथ मिलाया, दो शब्द भी कहे. देश की 'स्पिरिट' से. रेल्वे स्टेशन दूर नहीं है. वहाँ पानी सस्ता मिलता है (बाहर के मुकाबले) - पर ब्राँड की चॉएस नहीं है. एक ही ब्राँड है - रेल ब्युरोक्रेसी का चुना हुआ. पानी की बोतलें बिखरी पडी हैं. उनमें भी लगता है खून था. यहाँ की गंदगी खटकती नहीं. रेल्वे स्टेशन पे खून 'आऊट ऑफ कैरेक्टर' नहीं लगता. बोतलें पाँव से चिपक रही हैं. यहाँ भी कहीं कहीं कबूतर हैं - रोशनदानों से झाँकते हुए. (इसलिए) बेमतलब हैं.

टीवी अभी भी चल रहा है. हम रुके हुए हैं. फिल्म लंबी है. किरदार उतने इमोशनल नहीं हैं. अब थकावट होने लगी है. पर टीवी कैसे बंद होगा? रिमोट खो गया है. १० साल पहले. धोनी खुश है. कैमरे के आगे आ कर अंगूठा दिखा रहा है. आँखों में चमक है. फिर वही शब्द - स्पिरिट. लोकल ट्रेन तेज़ी से चल रही है. तबेले, झुग्गियाँ, वानखेडे - सब पीछे छूट रहा है. नया सिस्टम आया है. ३ मिनट में ३० चैनल बदले जा सकते हैं. सब पीछे छोडा जा सकता है - प्रवचन, एक्शन, फैशन, ज़ूम, हंगामा, उत्सव. अन्नू कपूर गा रहा है. उसकी आँखों में आँसू हैं. देश-भक्ति का गीत गाते हुए वो हर बार रोता है. उसकी आँखों में भी कबूतर हैं. वो ऊपर देख रहा है. स्क्रीन के पार. लोकल ट्रेन और तेज़ हो गयी है. पर रुकती नहीं, चली जा रही है, कई सालों से. मिलिट्री दौड रही है. स्कूल के बच्चों की तरह. मणिरत्नम की फिल्मों की तरह. शाम अच्छी लगती है. रात लंबी लगती है. रिमोट नहीं मिलने वाला. 'टिकर' पे फ्लैश हो रहा है - मतलब होता है, डैफिनीशन ज़रूरी है.

Thursday, November 20, 2008

तीन रैन्डम यादें

पिछ्ले कुछ दिनों से हो रही उथल-पुथल समझने की कोशिश में बहुत दूर तक जाना पडा. ये नहीं कहता कि कुछ समझ पाया, लेकिन यादों से जुड के और कुछ नहीं तो एक perspective तो मिलता ही है. नाम काल्पनिक हैं, घटनाएँ करीब-करीब सच्ची हैं.


कमरे में एक अजीब सा excitement था. कम से कम हम बच्चों में तो था. ऐसा लग रहा था जैसे पहली बार हमें बडों की दुनिया का हिस्सा बनने दिया जा रहा है, हमें दुनिया के वो राज़ बताए जा रहे हैं जो बहुत ज़रूरी हैं और हम उन्हें समझने लायक हो गए हैं. (मैं तब साल का था, सन् १९८९ में.) हमारी मकान माल्किन के छोटे बेटे 'अतुल भैय्या', जो हमें रात को बिजली चली जाने के बाद भूत की कहानियाँ सुनाया करते थे, ने सब के अंदर जाने के बाद दरवाज़ा ठीक से बंद कर लिया और अतुल भैय्या के बडे भैय्या यानि कि 'आलोक भैय्या' ने कैसेट को टेप रिकार्डर की लपलपाती जीभ में डाला. कैसेट खुद--खुद अंदर चला गया और 'सट्ट' कर के किसी खाँचे में बैठ भी गया. नाना जी (मकान माल्किन के पिता) ने आखिरी बार परदे से झाँक कर बाहर चेक किया और आलोक भैय्या को टेप चलाने का इशारा किया. हम बच्चे लोग अपनी साँसें रोके इंतज़ार कर रहे थे. टेप घूमना शुरु हो गया था.

सबसे पहले हमने साध्वी ऋतम्भरा को सुना. उतनी जोश भरी आवाज़ हमने तब तक किसी की नहीं सुनी थी इसलिए हमें बडा मज़ा आया. साथ ही इस बात का डर कि कोई ना जाए, पर्दों से ज़मीन पर गिरती कटी-फटी धूप, मकान माल्किन आँटी के उस बडे वाले कमरे की अजीब सी खुश्बू, और टेप को जुट कर सुनते दो घरों के बडे - ये सब अपनी अपनी तरह से असर कर रहा था. बडे लोग साध्वी की हर बात पे सिर हिलाते, एक दूसरे को देखते और नाना जी तो कभी-कभी हुँकार भर के मन ही मन कोई गाली देते (और कभी-कभी भगवान का नाम लेते). कैसेट का एक साइड खतम हुआ तो मम्मी ने बताया कि साध्वी रितम्भरा "हमारे यमुनानगर" की ही हैं. वो जब से साल की थीं, तब से प्रवचन कर रही हैं और आज पूरे देश में लोग उनकी बातें सुनने के लिए पागल हैं. अब याद नहीं कि तब ये सुन के मैं मन-ही-मन बाकी बच्चों से ऊँचा हो गया था या नहीं लेकिन लगता है कि होना तो चाहिए था.

कैसेट का 'बी-साइड' और मसालेदार होने वाला था, ऐसी हवा थी. 'बी-साइड' में सबसे पहले बात शुरु की अशोक सिंघल जी ने और मुख्यमंत्री मुलायम सिंह को मुल्ला-आयम सिंह बोल के तुरंत ही हम बच्चों को खुश कर दिया. आलोक भैय्या को भी वो वाली बात बहुत पसंद आयी और कैसेट rewind कर के फिर चलाया गया. इस बार हमें याद था कि सिंघल जी कहाँ वो वाली बात बोलेंगे इसलिए हम लोग पहले से ही तैय्यार थे साथ में उन्हीं की तरह झटका मार कर बोलने के लिए. सिंघल जी के भाषण के बाद अब मुझे भी बातें थोडी थोडी समझ में आने लगी थीं. अयोध्या में एक मंदिर था, जहाँ भगवान राम का जन्म हुआ था. उस मंदिर पे मुसलमानों ने कब्ज़ा कर लिया था और अब मुलायम सिंह 'यादव' ('यादव' को लेकर भी कोई ताली-मार लाइन थी, लेकिन अब याद नहीं) हम हिंदुओं को उस मंदिर में नहीं जाने दे रहे थे. शायद एक हफ्ता पहले ही किराए का वी.सी.आर. मँगा के हम लोगों ने Newstrack नाम का वीडियो बुलेटिन भी देखा था जिसमें मुलायम सिंह की पुलिस को देश भर से अयोध्या पहुँचे राम सेवकों पे गोली चलाते हुए दिखाया गया था. हाथों में झंडे लिए और माथे पे टेनिस खिलाडियों जैसा कपडा बाँधे राम सेवक अयोध्या के एक पुल पे थे जब पुलिस पार्टी सामने से गई और लाठीचार्ज के साथ हवाई फायर किया. आधा दर्ज़न राम-सेवकों को पुल से नीचे बहती सरयू नदी में कूदना पडा था. (अयोध्या में सरयू बहती है, ये हमें टीवी पे रामायण देख के ही पता चला था.) Newstrack भी हम लोगों ने चोरी-छुपे, पर्दे लगाकर देखा था और उसके बाद फिल्म पत्रिका 'लहरें' भी देखी थी. अशोक सिंघल जी ने भी Newstrack वाली घटना के बारे में बोला और मकान माल्किन आँटी सुनते सुनते रोने लगीं. भाषण खतम करने से पहले उन्होंने ज़ोर से 'जय श्री...' बोला और हम लोगों ने उतने ही जोश से 'राम'.




अर्शद बहुत तेज़ बाँलिंग करता था. और उसका रन-अप भी बहुत लंबा नहीं था. वसीम (अकरम) की तरह वो भी अपनी बाज़ू के तेज़ घुमाव और कलाई के तेज़ झटके के दम पे इतनी स्पीड जनरेट करता कि विकेट के पंद्रह फुट पीछे खडे होने पर भी और हाथ में मोटे डबल-लेयर दस्ताने पहनने के बाद भी बॉल हाथ में चिपकती. अर्शद का छोटा भाई अदनान, जो उससे सिर्फ - मिनट ही छोटा था, स्पिन करता था और बॉल को ऐसे नचाता था कि कई बार टिप्पा पडने के बाद बॉल वापस उसकी तरफ ही चली जाती थी.

हम सबकी फील्डिंग पोज़िशन्स अक्सर इंटरवल से पहले ही तय हो जातीं थीं. अर्शद दूसरे या तीसरे पीरियड में ही अपनी कॉपी के पिछले पन्ने पर मैदान का नक्शा बना के उसमें ग्यारह खिलाडी सैट कर देता. उसके बाद वो कॉपी क्लास भर घूमती और हम लोग उस नक्शे को बडी संजीदगी से स्टडी करते. मैं काफी मोटा था इसलिए मुझे अंपायर या विकेट कीपर ही बनाया जाता, और क्यूँकि मैं मोटा था, मैं दोनों हाल में खुश ही रहता. अंपायर होने का एक और बडा फायदा ये था कि मेरी दोनों टीमों से दोस्ती बनी रहती थी, और पता नहीं क्यूं, उस उम्र में ये मेरे लिए बहुत ज़रूरी था. मैं तह--दिल से मानता था कि मुझे बार बार अंपायर बनाने के पीछे बडा कारण यही है कि सब मेरे दोस्त हैं, मुझ पे भरोसा करते हैं. (और हाँ, हर ओवर के बाद बॉल एक बार अंपायर के हाथ में देने का रिवाज़ मुझे बहुत पसंद था.)

खैर, उस दिन भी मैं ही अंपायर था. और उस दिन मुझे ज़्यादा अलर्ट रहना था क्यूँकि खेल में LBW का रूल भी जोड लिया गया था और बहुत सारी फालतू अपीलें होने वाली थीं. सामने क्रीज़ पे अभिनव था - हिंदी वाले शर्मा सर का बेटा. सर का बेटा था इसलिए स्पोर्ट्स रूम से स्टम्पस और ग्लवज़ भी वही दिलाता था, और इसलिए पहले बैटिग भी वही करता था. इधर से, हमेशा की तरह अर्शद रहा था. अर्शद अक्सर पहली बॉल वाइड फेंकता था लेकिन उस दिन उसकी पहली बॉल ही सीधी अभिनव के पेट में जा घुसी. अभिनव के हाथ से बैट छूट गया और वो एक-दो मिनट के लिए घुटनों के बल बैठ गया. सब जानते थे अभिनव की नौटंकी इसलिए कोई उसको सिम्पैथी देने आगे नहीं गया. बल्कि 'वन डाउन' आने वाले संदीप ने दूर से यही पूछा कि अगर उसे आराम करना है तो रिटायर हो जाए. नॉन स्ट्राईकर पे खडे मन्नू (असली नाम मनु था) ने मेरी ओर देख कर दाँत निपोरे और बोला - अब खडा हो जाएगा साला.

वही हुआ भी. अर्शद वापस अपने रन-अप पे गया और अभिनव क्रीज़ से एक फीट आगे के खडा हो गया, थोडे से अटैकिंग मूड में. मैंने पूरे स्टाइल से अपने हाथ का सिग्नल डाउन किया और अर्शद दौडता हुआ, धूल उडाता हुआ आया. इस बार बॉल शॉर्ट-पिच थी और बहुत तेज़ भी. अभिनव कुछ समझ पाता इससे पहले ही उसकी नाक के अंदर जो आवाज़ उठी थी वो उसके दिमाग तक पहुँची और खून की दो बूँदें, हिटलर की मूँछों की तरह, उसकी नाक के नीचे के बैठ गयीं. बल्ला फिर हाथ से छूटा, घुटने फिर टिके, लेकिन इस बार अर्शद बहुत तेज़ी से उसकी तरफ भागा और जल्दी से उसको पकडने की कोशिश की. "रुमाल भिगा के लाओ कोई...जल्दी", अर्शद चिल्लाया और क्यूँकि मैं ही अंपायर था, तो ये काम मेरा ही बनता था. गेट के पास लगे हैन्ड-पम्प से जल्दी से मैंने अपना रुमाल गीला किया और वापस दौडा. तब तक वहाँ सब जमा हो गए थे और अर्शद ने अपने रुमाल से खून को रोका हुआ था. अभिनव काफी हैरान सा दिख रहा था पर शांत ही था. अर्शद ने पानी वाले रुमाल से थोडा पानी उसके सिर पे निचोडा और बाकी से उसकी नाक पोंछने लगा. और तभी पता नहीं अभिनव को क्या हो गया.

हम सब ने अभिनव को कभी वैसे नहीं देखा था. उसकी नाक पे पानी पडते ही शायद दर्द हुआ होगा और इसलिए उसने अर्शद को ज़ोर से धक्का दिया और चिल्लाया - 'साले कटुए!' मैंने ये शब्द पहले हवा-हवा में ही कहीं सुना था...और इस्तेमाल में तो कभी नहीं. अर्शद उसके धक्के से पीछे गिर गया और अभिनव तेज़ी से उठ के खडा हो गया. सब लोग अभी शब्दों और माहौल का अर्थ निकालने में ही लगे थे कि अभिनव ने बल्ला उठा के अर्शद के कंधे पे बजा दिया और बौरा गया - 'कटुए हरामी! सालों पाकिस्तान के कुत्तों...नाक फोड दी मेरी....तुझे तो मैं....' मैं बहुत डर गया, और ज़्यादातर बच्चे मेरी ही तरह चुपचाप खडे रहे. अदनान, अर्शद का भाई, कभी अभिनव को तो कभी अर्शद को 'भाई....भाई...' बुलाता रहा, और अभिनव के कुछ दोस्त उसको रोकने की 'नौटंकी' करते रहे (या हो सकता है कि वो इतने गुस्से में था कि वो बार बार छूट जाता था.)

थोडी देर अर्शद पिटता रहा, अदनान रोने को गया, और हम लोग वोयरिस्टिक प्लैज़र के लिए देखते रहे. लेकिन एक बात जो मैंने तब नहीं सोची, वो अब अजीब सी लगती है. डील-डौल में अर्शद अभिनव से कम नहीं था, और अभिनव ऐसा कोई 'फेवरिट' भी नहीं था क्लास का, लेकिन फिर भी उस दिन अर्शद ने एक बार भी रेज़िस्ट नहीं किया. बल्कि मुझे तो उसकी चुप्पी के सिवा कुछ याद नहीं.




बस चल पडी थी. मैं खिडकी से आधा अंदर और आधा बाहर लटका हुआ था, और बस चल पडी थी. मम्मी पापा इस बस में चढे थे या नहीं ये मुझे नहीं पता था. पर भीड इतनी थी कि मुझे लगा नहीं चढे होंगे. और इतना काफी था रोना शुरु करने के लिए. किसी ने मुझे अंदर खीँचा और आरती की थाली की तरह मुझे बस में घुमा दिया गया. रोते हुए मुटल्ले बच्चे को कोई वैसे भी ज़्यादा देर क्यूँ पकडता, वो भी जब उसके माँ-बाप ने उसे खिडकी से अंदर डाल दिया हो और खुद बस-स्टैंड पे ही रह गए हों.

हम लोग मसूरी जा रहे थे, मैंने नया स्वैटर पहना था, और सर पे गावस्कर के पहले हैल्मेट जैसी टोपी भी थी. लेकिन रोना नहीं रुकता था और भीड इतनी थी कि कुछ समझ भी नहीं रहा था. और तरुण्, मेरा छोटा भाई, वो कहाँ था? कहीं उसे भी बस में तो नहीं चढाया था खिडकी से? ये सोच के मैं और ज़ोर से रोने लगा. (अब मुझे लगता है बच्चों को रो के हौसला मिलता है.) फिर पता चला, कुछ लोगों ने बस घुमाने को कह दिया था. एक अंकल ने मुझे चुप कराते हुए कहा कि हम लोग वापस जा रहे हैं - बस स्टैंड. किसी ने चुप कराने के लिए शायद संतरे वाली गोली भी दी थी.

बस वापस उसी बस अड्डे पर गई जहाँ थोडी देर पहले, भीड की धक्का-मुक्की और बसों की कमी की वजह से मैं अकेला चला गया था. मुझे उतार कर बस वापस चली गई और पापा उन लोगों का धन्यवाद भी नहीं कर पाए जिन्होंने बस वापस घुमाई थी. पापा ने मुझसे पूछा कि कौन अंकल थे तुम्हें पता है क्या? और मैंने बस वो संतरे वाली गोली दिखा दी - यही वाले थे शायद.


Friday, May 23, 2008

इडली

रघु को अब अपनी इस साइकल पे गुस्सा आने लगा था. कल ही नये बेयरिंग डलवाए थे पैडल में और पैडल अब फिर जाम हो रहा था. धूप भी अचानक से तेज़ हो गई थी, जैसे उसे भी बाकी मुंबई की तरह फास्ट लोकल पकडनी हो! पर तेज़ धूप में इडली ज़्यादा देर गर्म रहेगी, ये सोच के रघु को अच्छा लगा. वैसे आज सुबह से धंधा कुछ ठंडा ही था - नीलकमल वाली आंटी भी नहीं आयी आज तो. और जितने ग्राहक लोग आए, सब साले 'एक्सट्रा चटनी' या 'साँभर थोडा और दो ना' वाले थे. रघु का भाई, विजय, होता तो साफ मना कर देता - 'एक्सट्रा नक्को. पैसा लगेगा'. पर रघु को ये आम इंसानी फितरत सिखाने से पहले ही वो मर गया - इडली बेचते बेचते ही.

अब रघु 'सेठ' की खोली पे सुबह पाँच बजे पहुँच जाता है - तीन लडके और आते हैं, और चारों मिल के एक घंटे में करीबन 400 इडलियाँ बनाते हैं. मसाला, चूल्हा, साइकल (भोंपू वाली) सब सेठ देता है और हर इडली पे 50 पैसा भी. 6 बजे तक, 100-100 इडलियाँ लेकर चारों अपने अपने एरिया में निकलते हैं और करीबन 11 बजे तक बेचते हैं. यही काम शाम को 4 बजे फिर शुरु होता है, और इस बार साथ में मेदु वडा भी होता है, जिसपे 75 पैसा मिलता है.

रघु ने साइकल सडक किनारे रोकी और खडे-खडे ही भोंपू बजाने लगा. उसे भूख भी लग रही थी पर उसका खुद का बनाया कायदा था कि जब तक 50 इडली नहीं बिकती, वो नाश्ता नहीं करेगा. अभी 30 ही बिकी थी. मन बहलाने के लिए वो साइकल के पैडल को देखने लगा - उसे शक हुआ कि साइकल वाले ने उसे उल्लू तो नहीं बनाया. जबकि नए बेयरिंग उसकी आँखों के सामने डाले गए थे पर ये ऐसा शक था जो हर कमज़ोर आदमी को होता है - जो उसे सोचने पर मजबूर करता है कि वो कमज़ोर या ग़रीब क्यूँ है? और ऐसा शक हमेशा इसी एहसास पे खतम होता है कि हम इस दुनिया के सबसे आसान शिकार हैं, और ये जान लेना भी हमें कहीं फायदा नहीं देता.

बेयरिंग की जाँच में ज़मीन पर घुटने टिका के बैठा ही था कि एक अंकल ने आवाज़ दी - 'इडली मिलेगा?' रघु जल्दी से खडा हुआ और हाथ साफ करते हुए पूछा - 'कितना?' अंकल ने उसके गंदे हाथों को देखा और कहा - 'ऐसा करो, रहने दो.' रघु कुछ नहीं बोला. विजय होता तो बोलता, पर रघु ऐसे मौकों पे बुत बन जाता था. अंकल आगे चले गए और आधी साँस में एक गाली दी, शायद इसलिए कि रघु ने उन्हें रोका तक नहीं. रघु वापस पैडल देखने झुकने लगा लेकिन फिर सोचा अब आगे चलना चाहिए.

थोडा आगे बढा तो देखा कि पुलिस बंदोबस्त है. कोई धार्मिक झाँकी निकल रही थी, और पुलिस ने सडक पे रस्सियों से ही झाँकी के लिए एक अलग लेन बना दी थी. रघु को अचानक से अपने गाँव की अयप्पा पूजा याद आ गई - उसमें भी ऐसी ही झाँकी निकलती थी. ये बात और है कि रघु और उसकी बस्ती वाले इसे दूर से ही देखते थे. अयप्पा देवता, वैसे तो बहुत शक्तिशाली थे, पर उसकी बस्ती की छाया नहीं सह सकते थे. और शायद उन्हे पता भी नहीं था कि रघु के घर में भी उनकी एक मूर्ति है. पर मुंबई में अच्छा था - किसी भी भगवान या स्वामी जी की यात्रा हो, सडक किनारे से सब देख सकते थे.

झाँकी नज़दीक आयी तो रघु ने देखा कि एक बूढे गुरुजी को एक पालकी में ले जा रहे थे और उनके पीछे-पीछे औरतें और बच्चे नाचते गाते चल रहे थे. ढोल, बैंड बाजा, और बिना किसी लय-ताल के चिमटा बजाते हुए, करीबन 100 लोग शहरी ट्रैफिक जाम का एक छोटा नमूना पेश कर रहे थे. लेकिन तभी कुछ अजीब हुआ - रघु ने ऐसा सुना था, पर पहले कभी देखा नहीं था. पालकी उठाने वाले चारों आदमी अचानक से दर्द से चिल्ला उठे, वो चिल्लाहट भी अजीब सी थी, जैसे कोई उनका गला दबा रहा हो और वो साँस लेने की कोशिश कर रहे हों. और इसके साथ ही पालकी अचानक से झुक गयी, सडक के दाहिने तरफ पूरी टेढी हो गई और गुरुजी ज़ोर ज़ोर से हुँकारें मारने लगे. पूरी भीड में अफरा-तफरी मच गयी और रघु के दिल में तुरंत वहाँ से निकलने की बात आयी. "लफडा नहीं करने का कोई!", सेठ हर रोज़ सुबह बोलता था.

पर ना आगे जाने का रास्ता था, ना वापस मुडने का. और तभी पूरा मामला भी समझ आ गया. पालकी ज़मीन पे कपडा बिछा के रख दी गई और सारे सेवक गुरुजी के इर्द-गिर्द बैठ गए. उन्हें मानो कोई दौरा आया था, या वो कुछ कहना चाहते थे. रघु को याद आया कि कैसे उसने सुना था कि अयप्पा भगवान की पालकी में कई बार खुद देवता आ जाते थे और पुजारियों से बात करते थे. यहाँ कौन आया था, ये तो उसे नहीं पता चला पर जल्दी ही खबर फैल गयी कि गुरुजी भूखे हैं. जनता ने, जो इस मौके के लिए तैयार ही थी, गुरुजी के सामने दूध, मिठाई, फल जैसी चीज़ों के डब्बे खोल दिए. पर गुरुजी, आँख बंद कर के, हर चीज़ को मुँह तक ले जाते और बिना खाए ही हवा में फेंक देते. उनका फेंका हुआ उठाने के लिए जनता में ऐसे लडाई होती जैसे संक्रांत पे बच्चे पतंगों के लिए लडते हैं.

रघु के मन में आया कि कोई सेवक उसकी इडली भी ले जाए और गुरुजी उसका परीक्षण करें पर तभी पुलिस के एक डंडे ने उसके स्टील के बर्तन को झनझना दिया. 3-4 मराठी गालियाँ खा के वो तेज़ी से आगे बढा और उसे फिर से अपनी भूख याद आयी. पर इस बार ज़्यादा नहीं रुकना पडा. अगले चौराहे पे एक मोटे अमीर बच्चे ने 15 इडलियाँ ले लीं और पास ही एक दुकानदार ने 12 और खपा दीं. रघु ने एक पेड के नीचे साइकल खडी की और अपना नाश्ता सजाया. कुछ सेवक अभी भी तरह तरह के फल लेकर झाँकी वाली दिशा में तेज़ी से जा रहे थे और रघु सोचने लगा कि विजय होता तो जा के गुरुजी को खुद ही इडली सुँघाता.

आगे के दो घंटे साधारण ही रहे, करीबन तीस इडलियाँ और बिकीं, लेकिन उनमें से पाँच, ग्राहक को थैली देते देते गिर गयीं, इसलिए दोबारा देनी पडीं. बची हुईं इडलियों का सेठ दस पैसा देता है, और बचा हुआ खट्टा हो चुका साँभर मुफ्त ले जा सकते हो, दोपहर के खाने के लिए. साइकल रख के और हिसाब कर के रघु अपनी खोली पे आ गया. तीन घंटे सोने की कोशिश की लेकिन नींद नहीं आयी - बार बार गुरुजी और उनके सेवक याद आते रहे. वो बंद आँखें, वो गोरा चेहरा, वो पगलाई सी सुंदर औरतें, उनका गिडगिडाना, महँगी मिठाईयाँ खिलाने की कोशिश करना. रघु सोचने लगा कि गुरुजी ने अब तक कुछ खाया होगा या नहीं. उनको क्या चाहिए था - उनको किस चीज़ की भूख थी? क्या वो सिर्फ एक नाटक था, या पालकी सच में उनकी भूख की ताकत से झुक गयी थी? क्या सच में किसी में इतनी ताकत होती है? और लोग कैसे पागल हुए जा रहे थे - वो भी सिर्फ इसलिए कि एक बुड्ढे ने केला फेंक दिया. लेकिन नहीं, रघु को लगा, उसे ऐसा नहीं सोचना चाहिए. विजय कहता था कि वो बहुत सीधा है, उसे दुनिया के बारे में कुछ नहीं पता. इसपे रघु को एक बार फिर अपनी साइकल का पैडल याद आ गया. और थोडी देर की नींद भी.

जब उठा तो चार बज चुके थे - शायद आधा घंटा ही सोया था. जल्दी जल्दी मुँह धोया और सेठ की खोली में पहुँच गया. उसके मन में एक बात थी, जो शायद सोते-सोते और पक्की हो गई थी. सेठ ने उसे देर से आने के लिए गाली दी पर रघु कुछ नहीं बोला, हमेशा की तरह. जल्दी जल्दी इडली मशीन में इडली चढाई, और मेदु वडा का मसाला घोलने लगा. अगले दो घंटे में रघु बहुत बार खुद से मुस्कुराया, वडा बनाने से पहले बार बार हाथ धोए और अपना स्टील का बर्तन भी अलग से, अच्छे से चमकाया. 100 इडली और 70 मेदु वडा लेकर वो तेज़ी से अपनी साइकल पे निकला. रास्ते में उसने न कहीं भोंपू बजाया, न कहीं रुका. बस बरसाती पानी की तरह, इस नयी ढलान पे बहता चला गया.

गोकुल धाम वाले सर्कल से आगे पहुँचा तो उसे दूर से ही भीड दिख गयी. टी.वी. वाले भी अपना कैमरा लगाए बैठे थे और पुलिस बंदोबस्त सुबह से भी ज़्यादा तगडा था. बात साफ थी, और जो रघु को पक्का यकीन भी था, गुरु जी ने अब तक कुछ नहीं खाया था. कतार करीबन एक किलोमीटर लंबी थी और लोग हाथों में तरह तरह के डिब्बे लिए खडे थे. कुछ महिलाएँ तो सडक किनारे ही चुल्हा जला के न्यूज़ चैनल वालों से बात कर रहीं थीं. पर रघु कतार के लिए नहीं रुका. उसकी साइकल, भोंपू बजाते हुए, ठीक उस तरफ बढ चली थी जहाँ अब एक तंबू, एक पंखा और गुजराती भजन बजाता हुआ एक टेप गुरुजी को तीन दिशाओं से ताड रहे थे. रघु ने नज़दीक ही अपनी साइकल खडी की और एक सूखे पत्ते पर दो इडली और दो वडे निकाले, ऊपर थोडी सी नारियल चटनी और एक अलग पत्ते की कटोरी में सांभर परोसा. अभी वो इत्मीनान से ये कर ही रहा था कि एक पाँडू का डंडा आ के उसकी साइकल पे बजा. रघु ने डंडे और पाँडू पे कोई ध्यान नहीं दिया और इडली-वडा लेकर खिंचा सा गुरुजी की तरफ चल पडा.

'ए...ए...ए...चम्माइला कुठे-अस्ते?', हवलदार ने उसके आगे अपना डंडा अडाया पर रघु, बरसों से प्यासे की तरह सिर्फ गुरुजी को देख रहा था. श्रद्धालुओं का कहना है कि जब तक उन्होंने देखा, रघु बहुत पास आ चुका था. तब तक उसके हाथ से साँभर वाली कटोरी गिर चुकी थी और बस इडली-वडा वाला पत्तल बचा था. उसके पास कहने को कुछ नहीं था, बस आँखों में आँसू थे और पीछे से पड रहे दना-दन डँडों का उसपे कोई असर नहीं था. गुजराती भजन वाला टेप रिकार्डर पार करने के बाद सेवक भी उसपे टूट पडे और उसे धक्के देकर बाहर करने की कोशिश की, पर काफी लोगों को महसूस हुआ कि इस दुबले से लडके में काफ़ी ताकत है, या वो सुबह से धूप में बैठने की वजह से उनका वहम भी हो सकता है. सिक्योरिटी वाली रस्सी से बाहर घसीट के रघु को काफी पीटा गया, उसकी साइकल और इडली का बर्तन भी गुस्से की चपेट में आए. पर रघु पिटते हुए भी कुछ नहीं बोला, उसका ध्यान सिर्फ इस तरफ था कि गुरुजी इतने शोर-शराबे के बाद भी अपनी आँखें नहीं खोल रहे. और ये बात उसे अच्छी लगी.

अगले दिन सेठ ने उसका इलाज कराया, तीन हड्डियाँ टूटी थीं, पाँच टाँके लगे थे. बदले में उसे दो हफ्ता बिना पगार के काम करना पडा. सिर्फ खाना मिलता था - बासी साँभर और इडलियाँ. साथी इडली वालों ने बहुत बार पूछा कि उस दिन क्या हुआ था पर रघु को खुद क्या पता था जो बोले? उसे बस इतना अंदाज़ा था कि विजय ठीक बोलता था - "दबने का नहीं". उसे अंदाज़ा था कि उस दिन वो काफी नज़दीक पहुँच गया था और दबा नहीं था.

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(मुँबई और उदय प्रकाश जी की 'तिरिछ' को बराबर भागों में समर्पित)

Monday, May 12, 2008

कमला बाबू

वो भी शायद लेखक बनने ही आए थे, या हो सकता है हीरो बनने, पर अब इस शहर से और अपने अंदर वाले struggler से समझौता कर लिया था. कमलेश कुमार शुक्ला, जिन्हें किसी भी जगह, जहाँ वो कुछ दिन रुकते और चंद इज़्ज़तदार दोस्त बनाते तो कमल बाबू का नाम दे दिया जाता, को फिल्म राइटर्ज़ एसोसिएशन के office में कमला बाबू कहा जाता था. वो फिल्म और टीवी इंडस्ट्री के normally paranoid writers की नई scripts को register कराने के इस कारखाने में एक मशीन थे. उनका काम था हडबडी में आए writer के हाथ से script लेना, उसका membership card माँगना, उस card से नंबर दर्ज़ कर के script के ऊपर लिखना और script अगले मेज़ पे pass कर देना. अगले मेज़ पे यशवंत नाम की machine हर पेज पर तारीख वाली stamp लगाती थी और गिनती कर के, हर पेज के २ रुपए के हिसाब से बिल बनाती थी. बिल की अदायगी के लिए एक बार फिर कमला बाबू की तरफ direct कर दिया जाता. पैसे जमा करने के बाद, कारखाने की आखिरी मशीन, एसोसिएशन के अध्यक्ष, हर पन्ने पर हस्ताक्षर करते और कभी-कभी writer से time-pass गप्प भी लगा लेते.

पर बात हो रही है कमला बाबू की. उन्हें गप्प लगाने का कोई शौक नहीं था, और male writers से तो बिल्कुल नहीं. हाँ कोई ladies आती अपनी script या शायरी को trade union act के तहत protect कराने तो कमला बाबू अचानक से active हो जाते. उनके अंदर का actor या writer, जो भी था, वो जाग जाता. 'Boy' को दौडाकर चाय मँगवायी जाती और अगर कोई खास होती, जो अक्सर शायरा ही होती थीं, तो मद्रासी के यहाँ से वडा-पाव मँगाया जाता. शायरा के पास भी time की कमी नहीं दिखती और वो office को घर की तरह treat करती - बाथरूम में जा कर हाथ मुँह धोना, कुर्सी पे अपना बैग टाँग देना, और अपनी latest शायरी सुनाना. ऐसे ही वक़्त पे एक-दो बार मैं पहुँचा था जिस वजह से उनके बारे में कुछ कुछ मालूम है.

जैसे कि, वो बलिया के थे और ३० साल पहले बंबई आए थे. उस ज़माने में अंधेरी इलाका, जहाँ आज 1 BHK flat ४० लाख का मिलता है, गाँव था और फिल्म सिटी जाने के लिए जंगल से गुज़रना पडता था. उनका एक रिश्तेदार या कोई भैया यहाँ पहले से struggle कर रहे थे. 'नसीब' नाम की फिल्म के एक गाने, 'चल मेरे भाई' में अमिताभ और रिशी कपूर को डंडा फटकारने वाले हवलदार का रोल उन्होंने ही किया था. कमला बाबू ने उनके साथ बडे film studios के चक्कर लगाए थे. कमालिस्तान, फिल्मिस्तान, आर. के., नटराज, जैमिनी; सब जगह कम से कम एक बार entry मिली थी पर काम मिलना मुश्किल था. उस ज़माने में आज जैसा नहीं था, कि talent की कद्र हो, वो भी खास कर के U.P. वालों की. "बच्चन के साथ उनका पैतृक नाम था, राजीव गाँधी उनके दोस्त थे, वरना कौन देता उन्हें भी काम", कमला बाबू का मानना था.

इन सबके बीच मैं ये कभी नहीं जान पाया कि उन दिनों कमला बाबू खुद क्या करते थे. बस एक बार एक नयी शायरा, जो वडा पाव में extra लहसुन चटनी चाहती थी, की बदौलत मुझे ये पता चल गया कि उनके वो 'भैया' एक दिन ज़हरीली शराब पी कर मर गए. 'उस दिन से हमने सोच लिया,' कमला बाबू ने कुर्सी पे सीधे होते हुए कहा, 'कि शहर से टकराएँगे नहीं. हमारे बाप राज कपूर नहीं थे और ना ही हमरी अम्मा emergency लगाईं थी, जितनी जमीन पे खडे थे, उतनी भी अपनी नहीं थी. भैया के किरयाकरम के लिए भी एक चायवाले से उधार लिया और सोच लिए कि उधार चुका के वापस बलिया की गाडी पकड लेंगे.'

बलिया की गाडी क्यूँ नहीं पकडी, या पकडी तो वापस कैसे आ गए, ये वाला किस्सा जिस दिन उन्होंने सुनाया होगा, मैं वहाँ नहीं था. पर जितनी इस शहर या किसी भी बडे शहर की समझ है, वापस जाना मुश्किल होता है. मुझे तो लगता है रेल्वे स्टेशन पर चादर बिछाकर सोने वाले ज़्यादातर लोग कई दिनों तक वहीं पडे-पडे सोचते रहते हैं कि जाएँ या ना जाएँ. तो मेरा ख्याल है कमला बाबू कभी गए ही नहीं.

एक और बार की बात है जब मैंने उनका एक और रूप देखा. एक बडा writer आया था, अपनी script लेकर. इस writer की हाल ही में ३-४ फिल्में hit हुईं थी और उसके आते ही पूरा माहौल थोडा सा रोमांचक हो गया. अंदर वाले कमरे से भी लोग बाहर आ गए और अध्यक्ष साहब ने कुर्सी से उठकर इस celebrity writer का स्वागत किया. पर कमला बाबू न उठे, न उसकी तरफ देखा, बस जो काम कर रहे थे, वो करते रहे. कतार थोडी लंबी थी तो अध्यक्ष महोदय ने खुद ही उनके हाथ से script लेते हुए कमला बाबू की तरफ बढा दी. 'अरे कमला बाबू, इनका पहले कर दीजिए ना...इन्हें जल्दी होगी.' कमला बाबू ने बढे हुए हाथ और उसमें फडफडाती script को एक सरसरी, सरकारी निगाह से देखा और बुदबुदाए - 'तो बाकी लोग क्या जुगाली वाली भैंस हैं. काम जल्दी से नहीं कायदे से होता है.' अध्यक्ष साब एक पल के लिए चौंक गए, उनको समझ नहीं आया कि अपना हाथ खींच लें या अपनी position की बदौलत बहस करें. वो इस मार्फ़त contemplate कर ही रहे थे कि बडे writer ने मामला संभाल लिया और कहा - 'मैं wait कर सकता हूँ. Number आने दीजिए. No problem!' अगली कुछ scripts, जिनमें एक मेरी भी थी, के registration में आम दिनों से ज़्यादा वक़्त लगा और कमला बाबू लगातार कुछ बडबडाते रहे. 'गुलज़ार साब भी आते हैं कभी-कभी, पर आज तक कभी नहीं कहा कि हमारा पहले कर दो. और एक बार कहा था तो हमने मना कर दिया. बाहर आप जो भी हों, यहाँ तो यहीं का कानून चलेगा ना! ये दीवार पे जित्ते frame लगे हैं, साहिर से लेकर मजरूह तक, सबने चप्पल घिस-घिस के कलम में छाले भरे हैं...और सब, सब के सब, इसी table से, हर page का दो रुपया देके गुज़रे हैं. जल्दी शैतान का काम होता है.' और ना जाने क्या-क्या बडबडाते रहे मेरे जाने के बाद भी.

मैं कभी ठीक से समझ नहीं पाया इस बात को. उनका गुस्सा किसपे था? अध्यक्ष पे, अपने रोज़-रोज़ के बोरिंग काम पे, या आजकल के laptop लेकर घूमने वाले writers पे, जो बहुत सारा पैसा कमा रहे थे. भरे office के सामने अधेड उम्र की शायराओं की साडी की तारीफ़ करने वाले कमला बाबू अभी भी शायद अंदर ही अंदर, बंबई सेन्ट्रल स्टेशन पर खडे थे, वापसी की ट्रेन लेने की सोचते हुए और अपनी बेबसी को एसोसिएशन की क्लर्की ताकत के पीछे छुपाते हुए.

आखिरी बार जब मैं उनसे मिला उस दिन कोई शायरा नहीं थी, पर उनका mood काफी अच्छा था. कतार में और कोई नहीं था और मेज़ पर वडा-पाव का तेल लगा था. पाव का आखिरी टुकडा चबाते हुए उन्होंने सुरेश को बुलाया और मेज़ गीले कपडे से साफ करने को बोला. यशवंत अभी खा ही रहा था तो उसके हिस्से का काम भी उन्होंने खुद कर दिया. मुझ से पूछा कि मैं कहाँ का हूँ और जब मैंने कहा 'लखनऊ' तो बडे खुश हो गए. 'कोई film मिली?' मैंने कहा - 'नहीं'. 'टीवी?' मैंने हाँ में सर हिलाया. 'अच्छा है. आजकल टीवी में ही पैसा है. Film line में जान भी जलती है और हरामी पैसा भी मार जाते हैं. गोमती नगर में मकान है हमारे साले का. तुम कहाँ रहते हो लखनऊ में?' मैंने मुस्कुरा के कहा 'मैं भी, गोमती नगर!' उसके बाद उन्होंने लखनऊ के एक और writer का नाम याद करने की कोशिश की पर उस समय याद नहीं आया. 'वो help करेगा तुम्हारी...फिल्म लिख रहा है.' मैंने धन्यवाद बोला और अगली बार पूछने का वादा किया.

अगली बार गया तो उनकी तस्वीर सामने वाली दीवार पे मिली, ठीक उनकी कुर्सी के ऊपर, ताज़ी फूलमाला सहित. उनकी कुर्सी पे यशवंत बैठा था, यशवंत की कुर्सी पे 'boy'. सोचा कि पूछूँ, क्या हुआ, कैसे हुआ, लेकिन वहाँ सब इतना सहज चल रहा था कि हिम्मत नहीं हुई माहौल का mood तोडने की. और फिर लगा कि पूछ कर भी क्या होगा. वहाँ से बाहर आया और सीढी उतरते वक़्त यही सोचता रहा - कमला बाबू इस शहर की नज़रों में, success थे या failure? आज उस मशहूर office में साहिर और मजरूह के सामने वाली दीवार पे उनकी तस्वीर लगी है, और शायद एसोसिएशन की तरफ से कोई condolence भी हुआ होगा. तो क्या वो शहर से टकराए? या वापस न जा कर उन्होंने ठीक किया? या ये सब सोचना ही बेकार है? शायद.

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(कुछ बातें सच हैं, कुछ किस्सा. कुछ किरदार सच हैं, कुछ कहानी.)