Friday, November 28, 2008

अंताक्षरी

दीवार पे खून के छींटे हैं. ऐसे जैसे सैफ अली खान ने 'रोयाल प्ले' का ऐड किया हो. खून हर तरफ है - लोग मरे हैं. मरना क्या होता है? डैफिनीशन ज़रूरी है. जो ज़मीन पर बिखरे पडे हैं, वो मर गए हैं और जो दीवारों पर लिपटा हुआ है - वो उनका खून है. टीवी ४८ घंटों से बंद नहीं हुआ. टीवी १० सालों से बंद नहीं हुआ. हम देख रहे हैं - बिना आँखें झपकाए कि कुछ होगा. मुद्दा सुलझेगा. या और उलझेगा फिर सुलझेगा. सुलझना क्या होता है? पता नहीं. पर इंतज़ार में सुकून है. इंतज़ार में 'मतलब' है. जीने का. मरना क्या होता है? शाम अच्छी लगती है. कबूतर अच्छे लगते हैं. शाम के आसमान में उडते कबूतरों को देख के लगता है उनमें भी एक मतलब है. ट्र्क तेज़ी से आ के रुकता है - पीछे का ढक्कन तुरंत खुलता है और मिलिट्री वाले उतरते हैं - कबूतर उडते हैं. कैमरा शेक करता है - हम साँस रोके देखते हैं. हौलीवुड की फिल्में याद आती हैं. हैलिकॉप्टर, बुलेट-प्रूफ जैकेट, शेक करते कैमरे, ४५० कमरे, खतरे के अंदर होकर भी बाहर हम. हम में 'स्पिरिट' है. हम फिर से उठ खडे होंगे. जो ज़िंदा हैं, वो. कंडिशन्ज़ एप्लाई.

फोन बजता रहता है. हम चलते रहते हैं. आवाज़ें भी साथ साथ चलती हैं - सिग्नल नहीं टूटता. प्रियंका चोपडा फोन लेकर बिस्तर पे नाच रही है. पीछे से आवाज़ें आ रही हैं. सिग्नल नहीं टूटता. हम ह्स्पताल में हैं. यहाँ दीवारों पे खून नहीं है - पर ज़मीन गंदी है. टिंचर की बदबू में भी प्रधान मंत्री ने नाक नहीं ढका. एक से हाथ मिलाया, दो शब्द भी कहे. देश की 'स्पिरिट' से. रेल्वे स्टेशन दूर नहीं है. वहाँ पानी सस्ता मिलता है (बाहर के मुकाबले) - पर ब्राँड की चॉएस नहीं है. एक ही ब्राँड है - रेल ब्युरोक्रेसी का चुना हुआ. पानी की बोतलें बिखरी पडी हैं. उनमें भी लगता है खून था. यहाँ की गंदगी खटकती नहीं. रेल्वे स्टेशन पे खून 'आऊट ऑफ कैरेक्टर' नहीं लगता. बोतलें पाँव से चिपक रही हैं. यहाँ भी कहीं कहीं कबूतर हैं - रोशनदानों से झाँकते हुए. (इसलिए) बेमतलब हैं.

टीवी अभी भी चल रहा है. हम रुके हुए हैं. फिल्म लंबी है. किरदार उतने इमोशनल नहीं हैं. अब थकावट होने लगी है. पर टीवी कैसे बंद होगा? रिमोट खो गया है. १० साल पहले. धोनी खुश है. कैमरे के आगे आ कर अंगूठा दिखा रहा है. आँखों में चमक है. फिर वही शब्द - स्पिरिट. लोकल ट्रेन तेज़ी से चल रही है. तबेले, झुग्गियाँ, वानखेडे - सब पीछे छूट रहा है. नया सिस्टम आया है. ३ मिनट में ३० चैनल बदले जा सकते हैं. सब पीछे छोडा जा सकता है - प्रवचन, एक्शन, फैशन, ज़ूम, हंगामा, उत्सव. अन्नू कपूर गा रहा है. उसकी आँखों में आँसू हैं. देश-भक्ति का गीत गाते हुए वो हर बार रोता है. उसकी आँखों में भी कबूतर हैं. वो ऊपर देख रहा है. स्क्रीन के पार. लोकल ट्रेन और तेज़ हो गयी है. पर रुकती नहीं, चली जा रही है, कई सालों से. मिलिट्री दौड रही है. स्कूल के बच्चों की तरह. मणिरत्नम की फिल्मों की तरह. शाम अच्छी लगती है. रात लंबी लगती है. रिमोट नहीं मिलने वाला. 'टिकर' पे फ्लैश हो रहा है - मतलब होता है, डैफिनीशन ज़रूरी है.

Thursday, November 20, 2008

तीन रैन्डम यादें

पिछ्ले कुछ दिनों से हो रही उथल-पुथल समझने की कोशिश में बहुत दूर तक जाना पडा. ये नहीं कहता कि कुछ समझ पाया, लेकिन यादों से जुड के और कुछ नहीं तो एक perspective तो मिलता ही है. नाम काल्पनिक हैं, घटनाएँ करीब-करीब सच्ची हैं.


कमरे में एक अजीब सा excitement था. कम से कम हम बच्चों में तो था. ऐसा लग रहा था जैसे पहली बार हमें बडों की दुनिया का हिस्सा बनने दिया जा रहा है, हमें दुनिया के वो राज़ बताए जा रहे हैं जो बहुत ज़रूरी हैं और हम उन्हें समझने लायक हो गए हैं. (मैं तब साल का था, सन् १९८९ में.) हमारी मकान माल्किन के छोटे बेटे 'अतुल भैय्या', जो हमें रात को बिजली चली जाने के बाद भूत की कहानियाँ सुनाया करते थे, ने सब के अंदर जाने के बाद दरवाज़ा ठीक से बंद कर लिया और अतुल भैय्या के बडे भैय्या यानि कि 'आलोक भैय्या' ने कैसेट को टेप रिकार्डर की लपलपाती जीभ में डाला. कैसेट खुद--खुद अंदर चला गया और 'सट्ट' कर के किसी खाँचे में बैठ भी गया. नाना जी (मकान माल्किन के पिता) ने आखिरी बार परदे से झाँक कर बाहर चेक किया और आलोक भैय्या को टेप चलाने का इशारा किया. हम बच्चे लोग अपनी साँसें रोके इंतज़ार कर रहे थे. टेप घूमना शुरु हो गया था.

सबसे पहले हमने साध्वी ऋतम्भरा को सुना. उतनी जोश भरी आवाज़ हमने तब तक किसी की नहीं सुनी थी इसलिए हमें बडा मज़ा आया. साथ ही इस बात का डर कि कोई ना जाए, पर्दों से ज़मीन पर गिरती कटी-फटी धूप, मकान माल्किन आँटी के उस बडे वाले कमरे की अजीब सी खुश्बू, और टेप को जुट कर सुनते दो घरों के बडे - ये सब अपनी अपनी तरह से असर कर रहा था. बडे लोग साध्वी की हर बात पे सिर हिलाते, एक दूसरे को देखते और नाना जी तो कभी-कभी हुँकार भर के मन ही मन कोई गाली देते (और कभी-कभी भगवान का नाम लेते). कैसेट का एक साइड खतम हुआ तो मम्मी ने बताया कि साध्वी रितम्भरा "हमारे यमुनानगर" की ही हैं. वो जब से साल की थीं, तब से प्रवचन कर रही हैं और आज पूरे देश में लोग उनकी बातें सुनने के लिए पागल हैं. अब याद नहीं कि तब ये सुन के मैं मन-ही-मन बाकी बच्चों से ऊँचा हो गया था या नहीं लेकिन लगता है कि होना तो चाहिए था.

कैसेट का 'बी-साइड' और मसालेदार होने वाला था, ऐसी हवा थी. 'बी-साइड' में सबसे पहले बात शुरु की अशोक सिंघल जी ने और मुख्यमंत्री मुलायम सिंह को मुल्ला-आयम सिंह बोल के तुरंत ही हम बच्चों को खुश कर दिया. आलोक भैय्या को भी वो वाली बात बहुत पसंद आयी और कैसेट rewind कर के फिर चलाया गया. इस बार हमें याद था कि सिंघल जी कहाँ वो वाली बात बोलेंगे इसलिए हम लोग पहले से ही तैय्यार थे साथ में उन्हीं की तरह झटका मार कर बोलने के लिए. सिंघल जी के भाषण के बाद अब मुझे भी बातें थोडी थोडी समझ में आने लगी थीं. अयोध्या में एक मंदिर था, जहाँ भगवान राम का जन्म हुआ था. उस मंदिर पे मुसलमानों ने कब्ज़ा कर लिया था और अब मुलायम सिंह 'यादव' ('यादव' को लेकर भी कोई ताली-मार लाइन थी, लेकिन अब याद नहीं) हम हिंदुओं को उस मंदिर में नहीं जाने दे रहे थे. शायद एक हफ्ता पहले ही किराए का वी.सी.आर. मँगा के हम लोगों ने Newstrack नाम का वीडियो बुलेटिन भी देखा था जिसमें मुलायम सिंह की पुलिस को देश भर से अयोध्या पहुँचे राम सेवकों पे गोली चलाते हुए दिखाया गया था. हाथों में झंडे लिए और माथे पे टेनिस खिलाडियों जैसा कपडा बाँधे राम सेवक अयोध्या के एक पुल पे थे जब पुलिस पार्टी सामने से गई और लाठीचार्ज के साथ हवाई फायर किया. आधा दर्ज़न राम-सेवकों को पुल से नीचे बहती सरयू नदी में कूदना पडा था. (अयोध्या में सरयू बहती है, ये हमें टीवी पे रामायण देख के ही पता चला था.) Newstrack भी हम लोगों ने चोरी-छुपे, पर्दे लगाकर देखा था और उसके बाद फिल्म पत्रिका 'लहरें' भी देखी थी. अशोक सिंघल जी ने भी Newstrack वाली घटना के बारे में बोला और मकान माल्किन आँटी सुनते सुनते रोने लगीं. भाषण खतम करने से पहले उन्होंने ज़ोर से 'जय श्री...' बोला और हम लोगों ने उतने ही जोश से 'राम'.




अर्शद बहुत तेज़ बाँलिंग करता था. और उसका रन-अप भी बहुत लंबा नहीं था. वसीम (अकरम) की तरह वो भी अपनी बाज़ू के तेज़ घुमाव और कलाई के तेज़ झटके के दम पे इतनी स्पीड जनरेट करता कि विकेट के पंद्रह फुट पीछे खडे होने पर भी और हाथ में मोटे डबल-लेयर दस्ताने पहनने के बाद भी बॉल हाथ में चिपकती. अर्शद का छोटा भाई अदनान, जो उससे सिर्फ - मिनट ही छोटा था, स्पिन करता था और बॉल को ऐसे नचाता था कि कई बार टिप्पा पडने के बाद बॉल वापस उसकी तरफ ही चली जाती थी.

हम सबकी फील्डिंग पोज़िशन्स अक्सर इंटरवल से पहले ही तय हो जातीं थीं. अर्शद दूसरे या तीसरे पीरियड में ही अपनी कॉपी के पिछले पन्ने पर मैदान का नक्शा बना के उसमें ग्यारह खिलाडी सैट कर देता. उसके बाद वो कॉपी क्लास भर घूमती और हम लोग उस नक्शे को बडी संजीदगी से स्टडी करते. मैं काफी मोटा था इसलिए मुझे अंपायर या विकेट कीपर ही बनाया जाता, और क्यूँकि मैं मोटा था, मैं दोनों हाल में खुश ही रहता. अंपायर होने का एक और बडा फायदा ये था कि मेरी दोनों टीमों से दोस्ती बनी रहती थी, और पता नहीं क्यूं, उस उम्र में ये मेरे लिए बहुत ज़रूरी था. मैं तह--दिल से मानता था कि मुझे बार बार अंपायर बनाने के पीछे बडा कारण यही है कि सब मेरे दोस्त हैं, मुझ पे भरोसा करते हैं. (और हाँ, हर ओवर के बाद बॉल एक बार अंपायर के हाथ में देने का रिवाज़ मुझे बहुत पसंद था.)

खैर, उस दिन भी मैं ही अंपायर था. और उस दिन मुझे ज़्यादा अलर्ट रहना था क्यूँकि खेल में LBW का रूल भी जोड लिया गया था और बहुत सारी फालतू अपीलें होने वाली थीं. सामने क्रीज़ पे अभिनव था - हिंदी वाले शर्मा सर का बेटा. सर का बेटा था इसलिए स्पोर्ट्स रूम से स्टम्पस और ग्लवज़ भी वही दिलाता था, और इसलिए पहले बैटिग भी वही करता था. इधर से, हमेशा की तरह अर्शद रहा था. अर्शद अक्सर पहली बॉल वाइड फेंकता था लेकिन उस दिन उसकी पहली बॉल ही सीधी अभिनव के पेट में जा घुसी. अभिनव के हाथ से बैट छूट गया और वो एक-दो मिनट के लिए घुटनों के बल बैठ गया. सब जानते थे अभिनव की नौटंकी इसलिए कोई उसको सिम्पैथी देने आगे नहीं गया. बल्कि 'वन डाउन' आने वाले संदीप ने दूर से यही पूछा कि अगर उसे आराम करना है तो रिटायर हो जाए. नॉन स्ट्राईकर पे खडे मन्नू (असली नाम मनु था) ने मेरी ओर देख कर दाँत निपोरे और बोला - अब खडा हो जाएगा साला.

वही हुआ भी. अर्शद वापस अपने रन-अप पे गया और अभिनव क्रीज़ से एक फीट आगे के खडा हो गया, थोडे से अटैकिंग मूड में. मैंने पूरे स्टाइल से अपने हाथ का सिग्नल डाउन किया और अर्शद दौडता हुआ, धूल उडाता हुआ आया. इस बार बॉल शॉर्ट-पिच थी और बहुत तेज़ भी. अभिनव कुछ समझ पाता इससे पहले ही उसकी नाक के अंदर जो आवाज़ उठी थी वो उसके दिमाग तक पहुँची और खून की दो बूँदें, हिटलर की मूँछों की तरह, उसकी नाक के नीचे के बैठ गयीं. बल्ला फिर हाथ से छूटा, घुटने फिर टिके, लेकिन इस बार अर्शद बहुत तेज़ी से उसकी तरफ भागा और जल्दी से उसको पकडने की कोशिश की. "रुमाल भिगा के लाओ कोई...जल्दी", अर्शद चिल्लाया और क्यूँकि मैं ही अंपायर था, तो ये काम मेरा ही बनता था. गेट के पास लगे हैन्ड-पम्प से जल्दी से मैंने अपना रुमाल गीला किया और वापस दौडा. तब तक वहाँ सब जमा हो गए थे और अर्शद ने अपने रुमाल से खून को रोका हुआ था. अभिनव काफी हैरान सा दिख रहा था पर शांत ही था. अर्शद ने पानी वाले रुमाल से थोडा पानी उसके सिर पे निचोडा और बाकी से उसकी नाक पोंछने लगा. और तभी पता नहीं अभिनव को क्या हो गया.

हम सब ने अभिनव को कभी वैसे नहीं देखा था. उसकी नाक पे पानी पडते ही शायद दर्द हुआ होगा और इसलिए उसने अर्शद को ज़ोर से धक्का दिया और चिल्लाया - 'साले कटुए!' मैंने ये शब्द पहले हवा-हवा में ही कहीं सुना था...और इस्तेमाल में तो कभी नहीं. अर्शद उसके धक्के से पीछे गिर गया और अभिनव तेज़ी से उठ के खडा हो गया. सब लोग अभी शब्दों और माहौल का अर्थ निकालने में ही लगे थे कि अभिनव ने बल्ला उठा के अर्शद के कंधे पे बजा दिया और बौरा गया - 'कटुए हरामी! सालों पाकिस्तान के कुत्तों...नाक फोड दी मेरी....तुझे तो मैं....' मैं बहुत डर गया, और ज़्यादातर बच्चे मेरी ही तरह चुपचाप खडे रहे. अदनान, अर्शद का भाई, कभी अभिनव को तो कभी अर्शद को 'भाई....भाई...' बुलाता रहा, और अभिनव के कुछ दोस्त उसको रोकने की 'नौटंकी' करते रहे (या हो सकता है कि वो इतने गुस्से में था कि वो बार बार छूट जाता था.)

थोडी देर अर्शद पिटता रहा, अदनान रोने को गया, और हम लोग वोयरिस्टिक प्लैज़र के लिए देखते रहे. लेकिन एक बात जो मैंने तब नहीं सोची, वो अब अजीब सी लगती है. डील-डौल में अर्शद अभिनव से कम नहीं था, और अभिनव ऐसा कोई 'फेवरिट' भी नहीं था क्लास का, लेकिन फिर भी उस दिन अर्शद ने एक बार भी रेज़िस्ट नहीं किया. बल्कि मुझे तो उसकी चुप्पी के सिवा कुछ याद नहीं.




बस चल पडी थी. मैं खिडकी से आधा अंदर और आधा बाहर लटका हुआ था, और बस चल पडी थी. मम्मी पापा इस बस में चढे थे या नहीं ये मुझे नहीं पता था. पर भीड इतनी थी कि मुझे लगा नहीं चढे होंगे. और इतना काफी था रोना शुरु करने के लिए. किसी ने मुझे अंदर खीँचा और आरती की थाली की तरह मुझे बस में घुमा दिया गया. रोते हुए मुटल्ले बच्चे को कोई वैसे भी ज़्यादा देर क्यूँ पकडता, वो भी जब उसके माँ-बाप ने उसे खिडकी से अंदर डाल दिया हो और खुद बस-स्टैंड पे ही रह गए हों.

हम लोग मसूरी जा रहे थे, मैंने नया स्वैटर पहना था, और सर पे गावस्कर के पहले हैल्मेट जैसी टोपी भी थी. लेकिन रोना नहीं रुकता था और भीड इतनी थी कि कुछ समझ भी नहीं रहा था. और तरुण्, मेरा छोटा भाई, वो कहाँ था? कहीं उसे भी बस में तो नहीं चढाया था खिडकी से? ये सोच के मैं और ज़ोर से रोने लगा. (अब मुझे लगता है बच्चों को रो के हौसला मिलता है.) फिर पता चला, कुछ लोगों ने बस घुमाने को कह दिया था. एक अंकल ने मुझे चुप कराते हुए कहा कि हम लोग वापस जा रहे हैं - बस स्टैंड. किसी ने चुप कराने के लिए शायद संतरे वाली गोली भी दी थी.

बस वापस उसी बस अड्डे पर गई जहाँ थोडी देर पहले, भीड की धक्का-मुक्की और बसों की कमी की वजह से मैं अकेला चला गया था. मुझे उतार कर बस वापस चली गई और पापा उन लोगों का धन्यवाद भी नहीं कर पाए जिन्होंने बस वापस घुमाई थी. पापा ने मुझसे पूछा कि कौन अंकल थे तुम्हें पता है क्या? और मैंने बस वो संतरे वाली गोली दिखा दी - यही वाले थे शायद.