रघु को अब अपनी इस साइकल पे गुस्सा आने लगा था. कल ही नये बेयरिंग डलवाए थे पैडल में और पैडल अब फिर जाम हो रहा था. धूप भी अचानक से तेज़ हो गई थी, जैसे उसे भी बाकी मुंबई की तरह फास्ट लोकल पकडनी हो! पर तेज़ धूप में इडली ज़्यादा देर गर्म रहेगी, ये सोच के रघु को अच्छा लगा. वैसे आज सुबह से धंधा कुछ ठंडा ही था - नीलकमल वाली आंटी भी नहीं आयी आज तो. और जितने ग्राहक लोग आए, सब साले 'एक्सट्रा चटनी' या 'साँभर थोडा और दो ना' वाले थे. रघु का भाई, विजय, होता तो साफ मना कर देता - 'एक्सट्रा नक्को. पैसा लगेगा'. पर रघु को ये आम इंसानी फितरत सिखाने से पहले ही वो मर गया - इडली बेचते बेचते ही.
अब रघु 'सेठ' की खोली पे सुबह पाँच बजे पहुँच जाता है - तीन लडके और आते हैं, और चारों मिल के एक घंटे में करीबन 400 इडलियाँ बनाते हैं. मसाला, चूल्हा, साइकल (भोंपू वाली) सब सेठ देता है और हर इडली पे 50 पैसा भी. 6 बजे तक, 100-100 इडलियाँ लेकर चारों अपने अपने एरिया में निकलते हैं और करीबन 11 बजे तक बेचते हैं. यही काम शाम को 4 बजे फिर शुरु होता है, और इस बार साथ में मेदु वडा भी होता है, जिसपे 75 पैसा मिलता है.
रघु ने साइकल सडक किनारे रोकी और खडे-खडे ही भोंपू बजाने लगा. उसे भूख भी लग रही थी पर उसका खुद का बनाया कायदा था कि जब तक 50 इडली नहीं बिकती, वो नाश्ता नहीं करेगा. अभी 30 ही बिकी थी. मन बहलाने के लिए वो साइकल के पैडल को देखने लगा - उसे शक हुआ कि साइकल वाले ने उसे उल्लू तो नहीं बनाया. जबकि नए बेयरिंग उसकी आँखों के सामने डाले गए थे पर ये ऐसा शक था जो हर कमज़ोर आदमी को होता है - जो उसे सोचने पर मजबूर करता है कि वो कमज़ोर या ग़रीब क्यूँ है? और ऐसा शक हमेशा इसी एहसास पे खतम होता है कि हम इस दुनिया के सबसे आसान शिकार हैं, और ये जान लेना भी हमें कहीं फायदा नहीं देता.
बेयरिंग की जाँच में ज़मीन पर घुटने टिका के बैठा ही था कि एक अंकल ने आवाज़ दी - 'इडली मिलेगा?' रघु जल्दी से खडा हुआ और हाथ साफ करते हुए पूछा - 'कितना?' अंकल ने उसके गंदे हाथों को देखा और कहा - 'ऐसा करो, रहने दो.' रघु कुछ नहीं बोला. विजय होता तो बोलता, पर रघु ऐसे मौकों पे बुत बन जाता था. अंकल आगे चले गए और आधी साँस में एक गाली दी, शायद इसलिए कि रघु ने उन्हें रोका तक नहीं. रघु वापस पैडल देखने झुकने लगा लेकिन फिर सोचा अब आगे चलना चाहिए.
थोडा आगे बढा तो देखा कि पुलिस बंदोबस्त है. कोई धार्मिक झाँकी निकल रही थी, और पुलिस ने सडक पे रस्सियों से ही झाँकी के लिए एक अलग लेन बना दी थी. रघु को अचानक से अपने गाँव की अयप्पा पूजा याद आ गई - उसमें भी ऐसी ही झाँकी निकलती थी. ये बात और है कि रघु और उसकी बस्ती वाले इसे दूर से ही देखते थे. अयप्पा देवता, वैसे तो बहुत शक्तिशाली थे, पर उसकी बस्ती की छाया नहीं सह सकते थे. और शायद उन्हे पता भी नहीं था कि रघु के घर में भी उनकी एक मूर्ति है. पर मुंबई में अच्छा था - किसी भी भगवान या स्वामी जी की यात्रा हो, सडक किनारे से सब देख सकते थे.
झाँकी नज़दीक आयी तो रघु ने देखा कि एक बूढे गुरुजी को एक पालकी में ले जा रहे थे और उनके पीछे-पीछे औरतें और बच्चे नाचते गाते चल रहे थे. ढोल, बैंड बाजा, और बिना किसी लय-ताल के चिमटा बजाते हुए, करीबन 100 लोग शहरी ट्रैफिक जाम का एक छोटा नमूना पेश कर रहे थे. लेकिन तभी कुछ अजीब हुआ - रघु ने ऐसा सुना था, पर पहले कभी देखा नहीं था. पालकी उठाने वाले चारों आदमी अचानक से दर्द से चिल्ला उठे, वो चिल्लाहट भी अजीब सी थी, जैसे कोई उनका गला दबा रहा हो और वो साँस लेने की कोशिश कर रहे हों. और इसके साथ ही पालकी अचानक से झुक गयी, सडक के दाहिने तरफ पूरी टेढी हो गई और गुरुजी ज़ोर ज़ोर से हुँकारें मारने लगे. पूरी भीड में अफरा-तफरी मच गयी और रघु के दिल में तुरंत वहाँ से निकलने की बात आयी. "लफडा नहीं करने का कोई!", सेठ हर रोज़ सुबह बोलता था.
पर ना आगे जाने का रास्ता था, ना वापस मुडने का. और तभी पूरा मामला भी समझ आ गया. पालकी ज़मीन पे कपडा बिछा के रख दी गई और सारे सेवक गुरुजी के इर्द-गिर्द बैठ गए. उन्हें मानो कोई दौरा आया था, या वो कुछ कहना चाहते थे. रघु को याद आया कि कैसे उसने सुना था कि अयप्पा भगवान की पालकी में कई बार खुद देवता आ जाते थे और पुजारियों से बात करते थे. यहाँ कौन आया था, ये तो उसे नहीं पता चला पर जल्दी ही खबर फैल गयी कि गुरुजी भूखे हैं. जनता ने, जो इस मौके के लिए तैयार ही थी, गुरुजी के सामने दूध, मिठाई, फल जैसी चीज़ों के डब्बे खोल दिए. पर गुरुजी, आँख बंद कर के, हर चीज़ को मुँह तक ले जाते और बिना खाए ही हवा में फेंक देते. उनका फेंका हुआ उठाने के लिए जनता में ऐसे लडाई होती जैसे संक्रांत पे बच्चे पतंगों के लिए लडते हैं.
रघु के मन में आया कि कोई सेवक उसकी इडली भी ले जाए और गुरुजी उसका परीक्षण करें पर तभी पुलिस के एक डंडे ने उसके स्टील के बर्तन को झनझना दिया. 3-4 मराठी गालियाँ खा के वो तेज़ी से आगे बढा और उसे फिर से अपनी भूख याद आयी. पर इस बार ज़्यादा नहीं रुकना पडा. अगले चौराहे पे एक मोटे अमीर बच्चे ने 15 इडलियाँ ले लीं और पास ही एक दुकानदार ने 12 और खपा दीं. रघु ने एक पेड के नीचे साइकल खडी की और अपना नाश्ता सजाया. कुछ सेवक अभी भी तरह तरह के फल लेकर झाँकी वाली दिशा में तेज़ी से जा रहे थे और रघु सोचने लगा कि विजय होता तो जा के गुरुजी को खुद ही इडली सुँघाता.
आगे के दो घंटे साधारण ही रहे, करीबन तीस इडलियाँ और बिकीं, लेकिन उनमें से पाँच, ग्राहक को थैली देते देते गिर गयीं, इसलिए दोबारा देनी पडीं. बची हुईं इडलियों का सेठ दस पैसा देता है, और बचा हुआ खट्टा हो चुका साँभर मुफ्त ले जा सकते हो, दोपहर के खाने के लिए. साइकल रख के और हिसाब कर के रघु अपनी खोली पे आ गया. तीन घंटे सोने की कोशिश की लेकिन नींद नहीं आयी - बार बार गुरुजी और उनके सेवक याद आते रहे. वो बंद आँखें, वो गोरा चेहरा, वो पगलाई सी सुंदर औरतें, उनका गिडगिडाना, महँगी मिठाईयाँ खिलाने की कोशिश करना. रघु सोचने लगा कि गुरुजी ने अब तक कुछ खाया होगा या नहीं. उनको क्या चाहिए था - उनको किस चीज़ की भूख थी? क्या वो सिर्फ एक नाटक था, या पालकी सच में उनकी भूख की ताकत से झुक गयी थी? क्या सच में किसी में इतनी ताकत होती है? और लोग कैसे पागल हुए जा रहे थे - वो भी सिर्फ इसलिए कि एक बुड्ढे ने केला फेंक दिया. लेकिन नहीं, रघु को लगा, उसे ऐसा नहीं सोचना चाहिए. विजय कहता था कि वो बहुत सीधा है, उसे दुनिया के बारे में कुछ नहीं पता. इसपे रघु को एक बार फिर अपनी साइकल का पैडल याद आ गया. और थोडी देर की नींद भी.
जब उठा तो चार बज चुके थे - शायद आधा घंटा ही सोया था. जल्दी जल्दी मुँह धोया और सेठ की खोली में पहुँच गया. उसके मन में एक बात थी, जो शायद सोते-सोते और पक्की हो गई थी. सेठ ने उसे देर से आने के लिए गाली दी पर रघु कुछ नहीं बोला, हमेशा की तरह. जल्दी जल्दी इडली मशीन में इडली चढाई, और मेदु वडा का मसाला घोलने लगा. अगले दो घंटे में रघु बहुत बार खुद से मुस्कुराया, वडा बनाने से पहले बार बार हाथ धोए और अपना स्टील का बर्तन भी अलग से, अच्छे से चमकाया. 100 इडली और 70 मेदु वडा लेकर वो तेज़ी से अपनी साइकल पे निकला. रास्ते में उसने न कहीं भोंपू बजाया, न कहीं रुका. बस बरसाती पानी की तरह, इस नयी ढलान पे बहता चला गया.
गोकुल धाम वाले सर्कल से आगे पहुँचा तो उसे दूर से ही भीड दिख गयी. टी.वी. वाले भी अपना कैमरा लगाए बैठे थे और पुलिस बंदोबस्त सुबह से भी ज़्यादा तगडा था. बात साफ थी, और जो रघु को पक्का यकीन भी था, गुरु जी ने अब तक कुछ नहीं खाया था. कतार करीबन एक किलोमीटर लंबी थी और लोग हाथों में तरह तरह के डिब्बे लिए खडे थे. कुछ महिलाएँ तो सडक किनारे ही चुल्हा जला के न्यूज़ चैनल वालों से बात कर रहीं थीं. पर रघु कतार के लिए नहीं रुका. उसकी साइकल, भोंपू बजाते हुए, ठीक उस तरफ बढ चली थी जहाँ अब एक तंबू, एक पंखा और गुजराती भजन बजाता हुआ एक टेप गुरुजी को तीन दिशाओं से ताड रहे थे. रघु ने नज़दीक ही अपनी साइकल खडी की और एक सूखे पत्ते पर दो इडली और दो वडे निकाले, ऊपर थोडी सी नारियल चटनी और एक अलग पत्ते की कटोरी में सांभर परोसा. अभी वो इत्मीनान से ये कर ही रहा था कि एक पाँडू का डंडा आ के उसकी साइकल पे बजा. रघु ने डंडे और पाँडू पे कोई ध्यान नहीं दिया और इडली-वडा लेकर खिंचा सा गुरुजी की तरफ चल पडा.
'ए...ए...ए...चम्माइला कुठे-अस्ते?', हवलदार ने उसके आगे अपना डंडा अडाया पर रघु, बरसों से प्यासे की तरह सिर्फ गुरुजी को देख रहा था. श्रद्धालुओं का कहना है कि जब तक उन्होंने देखा, रघु बहुत पास आ चुका था. तब तक उसके हाथ से साँभर वाली कटोरी गिर चुकी थी और बस इडली-वडा वाला पत्तल बचा था. उसके पास कहने को कुछ नहीं था, बस आँखों में आँसू थे और पीछे से पड रहे दना-दन डँडों का उसपे कोई असर नहीं था. गुजराती भजन वाला टेप रिकार्डर पार करने के बाद सेवक भी उसपे टूट पडे और उसे धक्के देकर बाहर करने की कोशिश की, पर काफी लोगों को महसूस हुआ कि इस दुबले से लडके में काफ़ी ताकत है, या वो सुबह से धूप में बैठने की वजह से उनका वहम भी हो सकता है. सिक्योरिटी वाली रस्सी से बाहर घसीट के रघु को काफी पीटा गया, उसकी साइकल और इडली का बर्तन भी गुस्से की चपेट में आए. पर रघु पिटते हुए भी कुछ नहीं बोला, उसका ध्यान सिर्फ इस तरफ था कि गुरुजी इतने शोर-शराबे के बाद भी अपनी आँखें नहीं खोल रहे. और ये बात उसे अच्छी लगी.
अगले दिन सेठ ने उसका इलाज कराया, तीन हड्डियाँ टूटी थीं, पाँच टाँके लगे थे. बदले में उसे दो हफ्ता बिना पगार के काम करना पडा. सिर्फ खाना मिलता था - बासी साँभर और इडलियाँ. साथी इडली वालों ने बहुत बार पूछा कि उस दिन क्या हुआ था पर रघु को खुद क्या पता था जो बोले? उसे बस इतना अंदाज़ा था कि विजय ठीक बोलता था - "दबने का नहीं". उसे अंदाज़ा था कि उस दिन वो काफी नज़दीक पहुँच गया था और दबा नहीं था.
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(मुँबई और उदय प्रकाश जी की 'तिरिछ' को बराबर भागों में समर्पित)