वो भी शायद लेखक बनने ही आए थे, या हो सकता है हीरो बनने, पर अब इस शहर से और अपने अंदर वाले struggler से समझौता कर लिया था. कमलेश कुमार शुक्ला, जिन्हें किसी भी जगह, जहाँ वो कुछ दिन रुकते और चंद इज़्ज़तदार दोस्त बनाते तो कमल बाबू का नाम दे दिया जाता, को फिल्म राइटर्ज़ एसोसिएशन के office में कमला बाबू कहा जाता था. वो फिल्म और टीवी इंडस्ट्री के normally paranoid writers की नई scripts को register कराने के इस कारखाने में एक मशीन थे. उनका काम था हडबडी में आए writer के हाथ से script लेना, उसका membership card माँगना, उस card से नंबर दर्ज़ कर के script के ऊपर लिखना और script अगले मेज़ पे pass कर देना. अगले मेज़ पे यशवंत नाम की machine हर पेज पर तारीख वाली stamp लगाती थी और गिनती कर के, हर पेज के २ रुपए के हिसाब से बिल बनाती थी. बिल की अदायगी के लिए एक बार फिर कमला बाबू की तरफ direct कर दिया जाता. पैसे जमा करने के बाद, कारखाने की आखिरी मशीन, एसोसिएशन के अध्यक्ष, हर पन्ने पर हस्ताक्षर करते और कभी-कभी writer से time-pass गप्प भी लगा लेते.
पर बात हो रही है कमला बाबू की. उन्हें गप्प लगाने का कोई शौक नहीं था, और male writers से तो बिल्कुल नहीं. हाँ कोई ladies आती अपनी script या शायरी को trade union act के तहत protect कराने तो कमला बाबू अचानक से active हो जाते. उनके अंदर का actor या writer, जो भी था, वो जाग जाता. 'Boy' को दौडाकर चाय मँगवायी जाती और अगर कोई खास होती, जो अक्सर शायरा ही होती थीं, तो मद्रासी के यहाँ से वडा-पाव मँगाया जाता. शायरा के पास भी time की कमी नहीं दिखती और वो office को घर की तरह treat करती - बाथरूम में जा कर हाथ मुँह धोना, कुर्सी पे अपना बैग टाँग देना, और अपनी latest शायरी सुनाना. ऐसे ही वक़्त पे एक-दो बार मैं पहुँचा था जिस वजह से उनके बारे में कुछ कुछ मालूम है.
जैसे कि, वो बलिया के थे और ३० साल पहले बंबई आए थे. उस ज़माने में अंधेरी इलाका, जहाँ आज 1 BHK flat ४० लाख का मिलता है, गाँव था और फिल्म सिटी जाने के लिए जंगल से गुज़रना पडता था. उनका एक रिश्तेदार या कोई भैया यहाँ पहले से struggle कर रहे थे. 'नसीब' नाम की फिल्म के एक गाने, 'चल मेरे भाई' में अमिताभ और रिशी कपूर को डंडा फटकारने वाले हवलदार का रोल उन्होंने ही किया था. कमला बाबू ने उनके साथ बडे film studios के चक्कर लगाए थे. कमालिस्तान, फिल्मिस्तान, आर. के., नटराज, जैमिनी; सब जगह कम से कम एक बार entry मिली थी पर काम मिलना मुश्किल था. उस ज़माने में आज जैसा नहीं था, कि talent की कद्र हो, वो भी खास कर के U.P. वालों की. "बच्चन के साथ उनका पैतृक नाम था, राजीव गाँधी उनके दोस्त थे, वरना कौन देता उन्हें भी काम", कमला बाबू का मानना था.
इन सबके बीच मैं ये कभी नहीं जान पाया कि उन दिनों कमला बाबू खुद क्या करते थे. बस एक बार एक नयी शायरा, जो वडा पाव में extra लहसुन चटनी चाहती थी, की बदौलत मुझे ये पता चल गया कि उनके वो 'भैया' एक दिन ज़हरीली शराब पी कर मर गए. 'उस दिन से हमने सोच लिया,' कमला बाबू ने कुर्सी पे सीधे होते हुए कहा, 'कि शहर से टकराएँगे नहीं. हमारे बाप राज कपूर नहीं थे और ना ही हमरी अम्मा emergency लगाईं थी, जितनी जमीन पे खडे थे, उतनी भी अपनी नहीं थी. भैया के किरयाकरम के लिए भी एक चायवाले से उधार लिया और सोच लिए कि उधार चुका के वापस बलिया की गाडी पकड लेंगे.'
बलिया की गाडी क्यूँ नहीं पकडी, या पकडी तो वापस कैसे आ गए, ये वाला किस्सा जिस दिन उन्होंने सुनाया होगा, मैं वहाँ नहीं था. पर जितनी इस शहर या किसी भी बडे शहर की समझ है, वापस जाना मुश्किल होता है. मुझे तो लगता है रेल्वे स्टेशन पर चादर बिछाकर सोने वाले ज़्यादातर लोग कई दिनों तक वहीं पडे-पडे सोचते रहते हैं कि जाएँ या ना जाएँ. तो मेरा ख्याल है कमला बाबू कभी गए ही नहीं.
एक और बार की बात है जब मैंने उनका एक और रूप देखा. एक बडा writer आया था, अपनी script लेकर. इस writer की हाल ही में ३-४ फिल्में hit हुईं थी और उसके आते ही पूरा माहौल थोडा सा रोमांचक हो गया. अंदर वाले कमरे से भी लोग बाहर आ गए और अध्यक्ष साहब ने कुर्सी से उठकर इस celebrity writer का स्वागत किया. पर कमला बाबू न उठे, न उसकी तरफ देखा, बस जो काम कर रहे थे, वो करते रहे. कतार थोडी लंबी थी तो अध्यक्ष महोदय ने खुद ही उनके हाथ से script लेते हुए कमला बाबू की तरफ बढा दी. 'अरे कमला बाबू, इनका पहले कर दीजिए ना...इन्हें जल्दी होगी.' कमला बाबू ने बढे हुए हाथ और उसमें फडफडाती script को एक सरसरी, सरकारी निगाह से देखा और बुदबुदाए - 'तो बाकी लोग क्या जुगाली वाली भैंस हैं. काम जल्दी से नहीं कायदे से होता है.' अध्यक्ष साब एक पल के लिए चौंक गए, उनको समझ नहीं आया कि अपना हाथ खींच लें या अपनी position की बदौलत बहस करें. वो इस मार्फ़त contemplate कर ही रहे थे कि बडे writer ने मामला संभाल लिया और कहा - 'मैं wait कर सकता हूँ. Number आने दीजिए. No problem!' अगली कुछ scripts, जिनमें एक मेरी भी थी, के registration में आम दिनों से ज़्यादा वक़्त लगा और कमला बाबू लगातार कुछ बडबडाते रहे. 'गुलज़ार साब भी आते हैं कभी-कभी, पर आज तक कभी नहीं कहा कि हमारा पहले कर दो. और एक बार कहा था तो हमने मना कर दिया. बाहर आप जो भी हों, यहाँ तो यहीं का कानून चलेगा ना! ये दीवार पे जित्ते frame लगे हैं, साहिर से लेकर मजरूह तक, सबने चप्पल घिस-घिस के कलम में छाले भरे हैं...और सब, सब के सब, इसी table से, हर page का दो रुपया देके गुज़रे हैं. जल्दी शैतान का काम होता है.' और ना जाने क्या-क्या बडबडाते रहे मेरे जाने के बाद भी.
मैं कभी ठीक से समझ नहीं पाया इस बात को. उनका गुस्सा किसपे था? अध्यक्ष पे, अपने रोज़-रोज़ के बोरिंग काम पे, या आजकल के laptop लेकर घूमने वाले writers पे, जो बहुत सारा पैसा कमा रहे थे. भरे office के सामने अधेड उम्र की शायराओं की साडी की तारीफ़ करने वाले कमला बाबू अभी भी शायद अंदर ही अंदर, बंबई सेन्ट्रल स्टेशन पर खडे थे, वापसी की ट्रेन लेने की सोचते हुए और अपनी बेबसी को एसोसिएशन की क्लर्की ताकत के पीछे छुपाते हुए.
आखिरी बार जब मैं उनसे मिला उस दिन कोई शायरा नहीं थी, पर उनका mood काफी अच्छा था. कतार में और कोई नहीं था और मेज़ पर वडा-पाव का तेल लगा था. पाव का आखिरी टुकडा चबाते हुए उन्होंने सुरेश को बुलाया और मेज़ गीले कपडे से साफ करने को बोला. यशवंत अभी खा ही रहा था तो उसके हिस्से का काम भी उन्होंने खुद कर दिया. मुझ से पूछा कि मैं कहाँ का हूँ और जब मैंने कहा 'लखनऊ' तो बडे खुश हो गए. 'कोई film मिली?' मैंने कहा - 'नहीं'. 'टीवी?' मैंने हाँ में सर हिलाया. 'अच्छा है. आजकल टीवी में ही पैसा है. Film line में जान भी जलती है और हरामी पैसा भी मार जाते हैं. गोमती नगर में मकान है हमारे साले का. तुम कहाँ रहते हो लखनऊ में?' मैंने मुस्कुरा के कहा 'मैं भी, गोमती नगर!' उसके बाद उन्होंने लखनऊ के एक और writer का नाम याद करने की कोशिश की पर उस समय याद नहीं आया. 'वो help करेगा तुम्हारी...फिल्म लिख रहा है.' मैंने धन्यवाद बोला और अगली बार पूछने का वादा किया.
अगली बार गया तो उनकी तस्वीर सामने वाली दीवार पे मिली, ठीक उनकी कुर्सी के ऊपर, ताज़ी फूलमाला सहित. उनकी कुर्सी पे यशवंत बैठा था, यशवंत की कुर्सी पे 'boy'. सोचा कि पूछूँ, क्या हुआ, कैसे हुआ, लेकिन वहाँ सब इतना सहज चल रहा था कि हिम्मत नहीं हुई माहौल का mood तोडने की. और फिर लगा कि पूछ कर भी क्या होगा. वहाँ से बाहर आया और सीढी उतरते वक़्त यही सोचता रहा - कमला बाबू इस शहर की नज़रों में, success थे या failure? आज उस मशहूर office में साहिर और मजरूह के सामने वाली दीवार पे उनकी तस्वीर लगी है, और शायद एसोसिएशन की तरफ से कोई condolence भी हुआ होगा. तो क्या वो शहर से टकराए? या वापस न जा कर उन्होंने ठीक किया? या ये सब सोचना ही बेकार है? शायद.
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(कुछ बातें सच हैं, कुछ किस्सा. कुछ किरदार सच हैं, कुछ कहानी.)
पर बात हो रही है कमला बाबू की. उन्हें गप्प लगाने का कोई शौक नहीं था, और male writers से तो बिल्कुल नहीं. हाँ कोई ladies आती अपनी script या शायरी को trade union act के तहत protect कराने तो कमला बाबू अचानक से active हो जाते. उनके अंदर का actor या writer, जो भी था, वो जाग जाता. 'Boy' को दौडाकर चाय मँगवायी जाती और अगर कोई खास होती, जो अक्सर शायरा ही होती थीं, तो मद्रासी के यहाँ से वडा-पाव मँगाया जाता. शायरा के पास भी time की कमी नहीं दिखती और वो office को घर की तरह treat करती - बाथरूम में जा कर हाथ मुँह धोना, कुर्सी पे अपना बैग टाँग देना, और अपनी latest शायरी सुनाना. ऐसे ही वक़्त पे एक-दो बार मैं पहुँचा था जिस वजह से उनके बारे में कुछ कुछ मालूम है.
जैसे कि, वो बलिया के थे और ३० साल पहले बंबई आए थे. उस ज़माने में अंधेरी इलाका, जहाँ आज 1 BHK flat ४० लाख का मिलता है, गाँव था और फिल्म सिटी जाने के लिए जंगल से गुज़रना पडता था. उनका एक रिश्तेदार या कोई भैया यहाँ पहले से struggle कर रहे थे. 'नसीब' नाम की फिल्म के एक गाने, 'चल मेरे भाई' में अमिताभ और रिशी कपूर को डंडा फटकारने वाले हवलदार का रोल उन्होंने ही किया था. कमला बाबू ने उनके साथ बडे film studios के चक्कर लगाए थे. कमालिस्तान, फिल्मिस्तान, आर. के., नटराज, जैमिनी; सब जगह कम से कम एक बार entry मिली थी पर काम मिलना मुश्किल था. उस ज़माने में आज जैसा नहीं था, कि talent की कद्र हो, वो भी खास कर के U.P. वालों की. "बच्चन के साथ उनका पैतृक नाम था, राजीव गाँधी उनके दोस्त थे, वरना कौन देता उन्हें भी काम", कमला बाबू का मानना था.
इन सबके बीच मैं ये कभी नहीं जान पाया कि उन दिनों कमला बाबू खुद क्या करते थे. बस एक बार एक नयी शायरा, जो वडा पाव में extra लहसुन चटनी चाहती थी, की बदौलत मुझे ये पता चल गया कि उनके वो 'भैया' एक दिन ज़हरीली शराब पी कर मर गए. 'उस दिन से हमने सोच लिया,' कमला बाबू ने कुर्सी पे सीधे होते हुए कहा, 'कि शहर से टकराएँगे नहीं. हमारे बाप राज कपूर नहीं थे और ना ही हमरी अम्मा emergency लगाईं थी, जितनी जमीन पे खडे थे, उतनी भी अपनी नहीं थी. भैया के किरयाकरम के लिए भी एक चायवाले से उधार लिया और सोच लिए कि उधार चुका के वापस बलिया की गाडी पकड लेंगे.'
बलिया की गाडी क्यूँ नहीं पकडी, या पकडी तो वापस कैसे आ गए, ये वाला किस्सा जिस दिन उन्होंने सुनाया होगा, मैं वहाँ नहीं था. पर जितनी इस शहर या किसी भी बडे शहर की समझ है, वापस जाना मुश्किल होता है. मुझे तो लगता है रेल्वे स्टेशन पर चादर बिछाकर सोने वाले ज़्यादातर लोग कई दिनों तक वहीं पडे-पडे सोचते रहते हैं कि जाएँ या ना जाएँ. तो मेरा ख्याल है कमला बाबू कभी गए ही नहीं.
एक और बार की बात है जब मैंने उनका एक और रूप देखा. एक बडा writer आया था, अपनी script लेकर. इस writer की हाल ही में ३-४ फिल्में hit हुईं थी और उसके आते ही पूरा माहौल थोडा सा रोमांचक हो गया. अंदर वाले कमरे से भी लोग बाहर आ गए और अध्यक्ष साहब ने कुर्सी से उठकर इस celebrity writer का स्वागत किया. पर कमला बाबू न उठे, न उसकी तरफ देखा, बस जो काम कर रहे थे, वो करते रहे. कतार थोडी लंबी थी तो अध्यक्ष महोदय ने खुद ही उनके हाथ से script लेते हुए कमला बाबू की तरफ बढा दी. 'अरे कमला बाबू, इनका पहले कर दीजिए ना...इन्हें जल्दी होगी.' कमला बाबू ने बढे हुए हाथ और उसमें फडफडाती script को एक सरसरी, सरकारी निगाह से देखा और बुदबुदाए - 'तो बाकी लोग क्या जुगाली वाली भैंस हैं. काम जल्दी से नहीं कायदे से होता है.' अध्यक्ष साब एक पल के लिए चौंक गए, उनको समझ नहीं आया कि अपना हाथ खींच लें या अपनी position की बदौलत बहस करें. वो इस मार्फ़त contemplate कर ही रहे थे कि बडे writer ने मामला संभाल लिया और कहा - 'मैं wait कर सकता हूँ. Number आने दीजिए. No problem!' अगली कुछ scripts, जिनमें एक मेरी भी थी, के registration में आम दिनों से ज़्यादा वक़्त लगा और कमला बाबू लगातार कुछ बडबडाते रहे. 'गुलज़ार साब भी आते हैं कभी-कभी, पर आज तक कभी नहीं कहा कि हमारा पहले कर दो. और एक बार कहा था तो हमने मना कर दिया. बाहर आप जो भी हों, यहाँ तो यहीं का कानून चलेगा ना! ये दीवार पे जित्ते frame लगे हैं, साहिर से लेकर मजरूह तक, सबने चप्पल घिस-घिस के कलम में छाले भरे हैं...और सब, सब के सब, इसी table से, हर page का दो रुपया देके गुज़रे हैं. जल्दी शैतान का काम होता है.' और ना जाने क्या-क्या बडबडाते रहे मेरे जाने के बाद भी.
मैं कभी ठीक से समझ नहीं पाया इस बात को. उनका गुस्सा किसपे था? अध्यक्ष पे, अपने रोज़-रोज़ के बोरिंग काम पे, या आजकल के laptop लेकर घूमने वाले writers पे, जो बहुत सारा पैसा कमा रहे थे. भरे office के सामने अधेड उम्र की शायराओं की साडी की तारीफ़ करने वाले कमला बाबू अभी भी शायद अंदर ही अंदर, बंबई सेन्ट्रल स्टेशन पर खडे थे, वापसी की ट्रेन लेने की सोचते हुए और अपनी बेबसी को एसोसिएशन की क्लर्की ताकत के पीछे छुपाते हुए.
आखिरी बार जब मैं उनसे मिला उस दिन कोई शायरा नहीं थी, पर उनका mood काफी अच्छा था. कतार में और कोई नहीं था और मेज़ पर वडा-पाव का तेल लगा था. पाव का आखिरी टुकडा चबाते हुए उन्होंने सुरेश को बुलाया और मेज़ गीले कपडे से साफ करने को बोला. यशवंत अभी खा ही रहा था तो उसके हिस्से का काम भी उन्होंने खुद कर दिया. मुझ से पूछा कि मैं कहाँ का हूँ और जब मैंने कहा 'लखनऊ' तो बडे खुश हो गए. 'कोई film मिली?' मैंने कहा - 'नहीं'. 'टीवी?' मैंने हाँ में सर हिलाया. 'अच्छा है. आजकल टीवी में ही पैसा है. Film line में जान भी जलती है और हरामी पैसा भी मार जाते हैं. गोमती नगर में मकान है हमारे साले का. तुम कहाँ रहते हो लखनऊ में?' मैंने मुस्कुरा के कहा 'मैं भी, गोमती नगर!' उसके बाद उन्होंने लखनऊ के एक और writer का नाम याद करने की कोशिश की पर उस समय याद नहीं आया. 'वो help करेगा तुम्हारी...फिल्म लिख रहा है.' मैंने धन्यवाद बोला और अगली बार पूछने का वादा किया.
अगली बार गया तो उनकी तस्वीर सामने वाली दीवार पे मिली, ठीक उनकी कुर्सी के ऊपर, ताज़ी फूलमाला सहित. उनकी कुर्सी पे यशवंत बैठा था, यशवंत की कुर्सी पे 'boy'. सोचा कि पूछूँ, क्या हुआ, कैसे हुआ, लेकिन वहाँ सब इतना सहज चल रहा था कि हिम्मत नहीं हुई माहौल का mood तोडने की. और फिर लगा कि पूछ कर भी क्या होगा. वहाँ से बाहर आया और सीढी उतरते वक़्त यही सोचता रहा - कमला बाबू इस शहर की नज़रों में, success थे या failure? आज उस मशहूर office में साहिर और मजरूह के सामने वाली दीवार पे उनकी तस्वीर लगी है, और शायद एसोसिएशन की तरफ से कोई condolence भी हुआ होगा. तो क्या वो शहर से टकराए? या वापस न जा कर उन्होंने ठीक किया? या ये सब सोचना ही बेकार है? शायद.
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(कुछ बातें सच हैं, कुछ किस्सा. कुछ किरदार सच हैं, कुछ कहानी.)
10 comments:
kahani padh kar anand aa gaya, kahani yun toh khatm hui ek dukhad note par, magar sawaal saccha tha! saccha hi nahi, bada tha, jo shayad non-happy ending sey bada tha. kahani oadhtey waqt laga hi nahi ki kissi ki lekhni pad raha hoon, aisa laga ki ek kahani hai jo keh rahi hai, apney aap hi kuch kehti chali jaa rahi hai! bahut kuch keh gayi ant aatey aatey...kai saal baad munshi jee phir yaad aa gaye.. Thanks rahega..likhtey rahiye..
Sushant
Sushant
overall achchaa lagaa...
shuru mein laga agar kamla baabu ke baithne, baat-cheet karne ke tarike ke baarein mein kuchh hota to kamla baabu nazar hi aa jaate... :)
fav lines:
'चल मेरे भाई' में अमिताभ और रिशी कपूर को डंडा फटकारने वाले हवलदार का रोल उन्होंने ही किया था (jaise 'unhone hi' likha.)
बलिया की गाडी क्यूँ नहीं पकडी, या पकडी तो वापस कैसे आ गए, ये वाला किस्सा जिस दिन उन्होंने सुनाया होगा, मैं वहाँ नहीं था.
(baliya na ja paane waali baat kamla baabu ne aapne nahi ki...samajh mein aata hai.)
मैं कभी ठीक से समझ नहीं पाया इस बात को. उनका गुस्सा किसपे था? अध्यक्ष पे, अपने रोज़-रोज़ के बोरिंग काम पे, या आजकल के laptop लेकर घूमने वाले writers पे, जो बहुत सारा पैसा कमा रहे थे. भरे office के सामने अधेड उम्र की शायराओं की साडी की तारीफ़ करने वाले कमला बाबू अभी भी शायद अंदर ही अंदर, बंबई सेन्ट्रल स्टेशन पर खडे थे, वापसी की ट्रेन लेने की सोचते हुए और अपनी बेबसी को एसोसिएशन की क्लर्की ताकत के पीछे छुपाते हुए.(awesome)
...vaibhav suman
@ Sushant
Thanks rahega kahaani ko chalte-chalte kahne ka avsar dene ke liye. Basically ek sansmaran form mein hai...kahaani toh sab hi hote hain life mein, toh Kamla Baabu bhi they.
@ Vaibhav
Baat toh sahi kahi tumne, unke bol-chaal ke baare mein bhi kah sakta tha. Lekin phir mujhe laga ki unhein sabki imagination pe hi chhod doon toh achha hai. Isliye deliberately na toh unka koi description hai, na personality trait...aur umra tak nahin hai.
Mujhe laga iss tarah se zyada interesting hoga, agar sab log khud unka image banaayein.
अच्छा लगा खूद कै अनुभव को कहानि के रुप मै ढाल्ने कि बात, सटिक उधरन, अंग्रे़ज़ी का सही उपयोग ईसे ज़ीवन्तत देरहि है
Pehle to let me congratulate you blog pe almost 2 saal baad fresh entry ke liye, I thought aap ab tak password bhi bhool gaye honge :)
Kahani padhte padhte it was running like a TV serial in my mind. Maine Kamla baku ko, unse milne aayi madam ko aur saare characters ko saamne hi dekh liya!
"....कमला बाबू अभी भी शायद अंदर ही अंदर, बंबई सेन्ट्रल स्टेशन पर खडे थे."
यह बिम्ब ही है कहानी की जान. दरअसल शहर में रहने वाला हर आदमी अपने मन में एक पोटली बांधकर स्टेशन पर खड़ा है. लेकिन वो कभी वापिस नही जाता. जैसा 'दिल पे मत ले यार' में रामसरन कहता है, "वापिस ही जाना होता तो यहाँ शहर आते ही क्यों मैडम जी." तुम्हारी कहानी से ये तो मालूम चलता है कि इसमें बहुत कुछ व्यक्तिगत इनपुट है लेकिन आख़िर में है ये एक कहानी ही. एक मुकम्मल कहानी. आख़िर में लिखना.. 'इस मायानगरी में किसे पता क्या सच है क्या कहानी'...
'उस दिन से हमने सोच लिया,' कमला बाबू ने कुर्सी पे सीधे होते हुए कहा, 'कि शहर से टकराएँगे नहीं. हमारे बाप राज कपूर नहीं थे और ना ही हमरी अम्मा emergency लगाईं थी, जितनी जमीन पे खडे थे, उतनी भी अपनी नहीं थी. भैया के किरयाकरम के लिए भी एक चायवाले से उधार लिया और सोच लिए कि उधार चुका के वापस बलिया की गाडी पकड लेंगे.'
यह संवाद मुझे ख़ास पसंद आया. इसमें तुम्हारी नैसर्गिक wit उभरकर आती है जिसका मैं फैन हूँ! लेकिन मैं देख रहा हूँ कि तुमने पूरी कहानी में इसपर बहुत हद तक नियंत्रण रखा है. क्या यह सायास है?
तुम्हारी कहानी पढ़कर मुझे स्वयं प्रकाश की कहानियाँ याद आ गई. सच कह रहा हूँ.. तुम्हारी शैली और कहने का तरीका उनसे मिलता है. वो भी अपनी कहानियो में ऐसे ही व्यक्तिगत अनुभव पिरो देते हैं और कहने का तरीका भी ऐसा ही. मैं पूरी कोशिश करूंगा कि तुम तक उनकी कहानियाँ पहुँचा पाऊं. स्वयं प्रकाश मेरे पसंदीदा कहानीकार हैं ये तो तुम्हें मालूम है ही. और अब जब तुम उदय प्रकाश से मिल लिए हो तो स्वयं प्रकाश से मिलना भी तुम्हारे लिए ज़रूरी हो जाता है! करते हैं इसका भी कुछ जुगाड़...
@ Mihir
कहानी को ध्यान से पढने और उसके soul को समझने के लिए शुक्रिया. सही कहते हो, शहर में हर इंसान पोटली लेकर ही खडा है. मुझे याद है, जब मैं पुणे में नौकरी कर रहा था तो मेरा एक दोस्त हर महीने railway station जाता था, बनारस जाने वाली train को देखने. वही उसका तरीका था इस उम्मीद से जुडे रहने का कि हम भी किसी दिन जाएँगे - हमेशा के लिए. (वैसे वो अब तक पुणे में ही है.)
और जहाँ तक wit को deliberately control करने की बात है तो शायद सही कह रहे हो - इस कहानी में मैंने कहीं effort नहीं डाला कुछ कहने का और कोशिश रही कि जितनी चीज़ें देखी हैं, बस उन्हीं को, एक journalist की तरह, बयान कर दूँ.
पता है मैं आज भी कश्मीरी गेट बस अड्डे से जाती 'राजस्थान रोडवेज' की ब्लू लाइन और सिल्वर लाइन बसों को ऐसी ही हसरत भरी निगाहों से देखता हूँ!
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